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________________ विनयशीलता और समर्पण भाव भी थे। इनकी प्रत्येक छोटी से छोटी कृति में भी गुरू नयविजयजी का नाम परमादर के साथ सूचित किया गया है। यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' के सज्जनस्तुति अधिकार में जिस भक्तिभाव और मनोहर कल्पना के साथ नयविजयजी का गुणगान किया है, वह अनुपम और अद्वितीय है। 29 इससे आपकी पराकाष्ठा की गुरूभक्ति परिलक्षित होती है । यशोविजयजी को अपने गुरू के प्रति संपूर्ण समर्पण भाव था तो नयविजयजी को भी अपने सुयोग्य शिष्यरत्न के प्रति पूर्ण वात्सल्य भाव था। यही कारण है कि यशोविजयजी ने अपने जीवन काल में शताधिक महान ग्रन्थों की रचना करके जैन साहित्य के इतिहास में अपने नाम को स्वर्णाक्षरों में अंकित कर पाये । शिष्य के हृदय में गुरू का वास होना स्वाभाविक है । परन्तु गुरू के हृदय में शिष्य के लिए स्थान होना, शिष्य के लिए बहुत गौरव की बात है। नयविजयजी को यशोविजयजी के प्रति इतना अगाध वात्सल्य था कि स्वयं इन्होनें यशोविजयजी की कितनी ही कृतियों की हस्तप्रतियाँ तैयार की। ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहीं पर भी नहीं मिल सकता है, जहाँ शिष्य की कृतियों की हस्तप्रतियाँ गुरू ने तैयार की हों । उत्कृष्ट गुरुभक्ति के कारण ही यशोविजयजी अपने ज्ञान को पचा पाये, ऐसा यशोविजयजी ने उल्लेख किया है | 30 परमश्रुभक् उपाध्यायजी की श्रुतसाधना को देखते हुए ऐसा लगता है कि इन्होंने अपने संपूर्ण जीवन को ही विभिन्न साहित्यों के अध्ययन और सर्जन के लिए समर्पित कर दिया। आप निरन्तर श्रुतसागर की अथाह गहराई में गोते लगाते रहे और अमूल्य 29 यत्कीर्तिस्फूर्तिगाना बहितसुरवधुवृन्द कोलाहलेन । प्रक्षुब्धस्वर्गसिंधोः पतित जल भरैः क्षालितः शेत्यमेति । । अश्रान्त भ्रान्तकान्त ग्रहगण किरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो । भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजय बुधा सज्जन व्रातधुर्याः | 15 || 30 यत्कीर्तिस्फूर्तिगाना बहितसुरवधुवृन्द कोलाहलेन । प्रक्षुब्धस्वर्गसिंधोः पतित जल भरैः क्षालितः शेत्यमेति । । अश्रान्त भ्रान्तकान्त ग्रहगण किरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो । भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजय बुधा सज्जन व्रातधुर्याः ।।5।। 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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