________________
न लेकर चार लेते हैं तो सं. 1744 होता है और यही सं. 1744 सुसंगत लगता है, क्योंकि वे 1739 तक ग्रन्थ रचना करते रहे और सुजसवेलीभास के अनुसार यशोविजयजी का अन्तिम चातुर्मास संवत् 1743 में डभोई गांव में था। यहीं पर उन्होंने सं. 1744 में अपने पार्थिव देह को छोड़ा था। संवत् निश्चित होने पर भी यशोविजयजी के स्वर्गवास की निश्चित माह और तिथि जानने को नहीं मिलती है।
उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण -
महामहिम महोपाध्याय यशोविजयजी जिनशासन के ऐसे अनुपम स्वर्णहार थे जो त्याग, वैराग्य, सरलता, लघुता, गुणानुराग, धीर-गंभीरता, तर्कशीलता, दार्शनिकता, शासनभक्ति, गुरुभक्ति, तीर्थभक्ति, श्रुतभक्ति आदि अनेक गुण रूपी अमूल्य रत्नों से मंडित थे ।
44
1. त्याग - वैराग्य :
'सुजसवेलीभास' के आधार पर यह बात सुनिश्चित है कि यशोविजयजी ने अल्पवय में दीक्षा ली थी। बचपन की हंसी-ठिठोली की उम्र में संयम - साधना के पथ पर आरूढ़ होना कोई सामान्य बात नहीं है । माँ के उत्तम संस्कार और गुरू नयविजयजी का पावन सान्निध्य तो प्राप्त हुआ ही था । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आपने पूर्व भव की अधूरी योग साधना को पूर्ण करने हेतु ही जन्म लिया । अन्यथा भोग की उम्र में त्याग के प्रति आत्मिक रूचि हो पाना बहुत ही मुश्किल है । आगे भी आपने शिथिलाचार का विरोध करके कठोर साध्वाचार पर बल दिया | ज्ञान योग के प्रबल समर्थक होने पर भी इन्होंने अपने जीवन में त्याग और वैराग्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है ।
2. विनयशीलता और गुरू समर्पण
'विनयं ददाति विद्या' यह उक्ति उपाध्यायजी के जीवन में पूर्ण रूप से चरितार्थ हुई है। इनमें जितना उच्च कोटी का पाण्डित्य था, उतनी ही उच्च कोटी की
Jain Education International
—
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org