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उपरोक्त मुनिवरों के अतिरिक्त ऋद्धिविमलगणि, वीरविजयऋषि और मणिचंद्र ऋषि भी यशोविजयजी के समकालीन थे। इनके विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। परन्तु यशोविजयजी ने जो संवेगी साधुओं के लिए व्यवहार मर्यादा के 42 बोल का एक लेख लिखा था, उनमें हस्ताक्षर करने वाले जयसोमगणि, सत्यविजयगणि के साथ ऋद्धिविमलगणि, वीरविजयऋषि और मणिचंद्रऋषि भी थे, ऐसा उल्लेख अवश्य मिलता है। कालधर्म (स्वर्गवास) -
शासन समर्पित महोपाध्याय यशोविजयजी सं. 1743 में बड़ोदरा के समीपवर्ती गांव डभोई में 11 दिवस के अनशन और समाधिपूर्वक स्वर्गगामी बने।” अग्निसंस्कार के स्थान पर स्मारक निर्मित करके चरण–पादुका स्थापित की गई है। पादुकाओं में वि.सं. 1745 का उल्लेख मिलता है। पहले इस उल्लेख के आधार पर स्वर्गवास की तिथि सं. 1745 मार्गशीर्ष शुक्ला 11 (मौन एकादशी) ही मानी जाती थी। परन्तु यह तिथि स्वर्गवास की नहीं होकर चरण-पादुका की प्रतिष्ठा तिथि है। पादुका पर लेख स्पष्ट है –"संवत 1745 वर्षे प्रवर्तमाने मागशीर्षमासे शुक्लपक्षे एकादशी तिथौ श्री जसविजयगणिनां पादुका कारापिता प्रतिष्ठितऽत्रेयं, तत्त्वरणसेवक ....... विजयगणिना राजनगरे"28 इस प्रकार पादुका के निर्माण और उसके प्रतिष्ठा में समय तो लगा ही होगा।
उपाध्याय यशोविजयजी की सबसे अंतिम रचना वर्ष 1739 वाली कृति 'जंबूस्वामीरास' है जो खंभात भण्डार से प्राप्त हुई है। सुरत चातुर्मास में रचित प्रतिक्रमण हेतु सारगर्भित सज्झाय, और ग्यारह अंग के सज्झाय में रचना वर्ष “युग युग मुनि विधुवत सराई" इस प्रकार सूचित किया है। इसमें 'युग' शब्द का अर्थ दो
26 उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ. संपादक प्रद्युम्नविजयजी, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 18 27 सतर त्रयाली चोमासु रहया, पाठक नगर डमोई रे । तिहां सुरपदवी अणुसरी, अणसण करि पातक धोई रे
सुजसवेली, गा. 4/5 28 उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ से उद्धृत, पृ. 29
संपादकों - प्रद्युम्नविजयजी, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी.शाह
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