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मानविजयजी ने उल्लेख किया है। मानविजयजी, यशोविजयजी की बहुश्रुतता से
प्रभावित होकर लिखते हैं कि
तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन प्रोद्बोधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः चक्रुर्यश विजयवाचकराजिमुख्या ग्रन्थेत्र मथ्युपकृति परिशोधनाद्यैः ।। 25
मानविजयजी कहते हैं कि यशोविजयजी आगम के अनुपम ज्ञाता तथा कुमति के उत्थापक श्रुतकेवली थे । तर्क और प्रमाण - नय ग्रन्थों के मुख्य विवेचक थे। इससे यह ज्ञात होता है कि श्रद्धेय उपाध्याय यशोविजयजी का ज्ञान कितना परिष्कृत और तलस्पर्शी था ।
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4. सत्यविजयगणि :
विजयसिंहसूरि के शिष्य सत्यविजयगणि का जीवनकाल संवत 1680 से 1756 है । क्रियोद्धारक के रूप में प्रसिद्ध सत्यविजयगणि ने आचार्य पद को अस्वीकार करके छट्ठ-छट्ट की तपश्चर्यापूर्वक मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों में एकाकी विहार करते थे। विजयप्रभसूरि द्वारा प्रारम्भ की हुई यति परंपरा से संवेगी साधुओं की पृथक् पहचान के लिए आपने पीले वस्त्रों की परंपरा शुरू की । शिथिलाचारों को दूर करने के लिए आपने जो अथक प्रयास किया था उसमें यशोविजयजी ने भी अपना योगदान और सहायता प्रदान की थी ।
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5. वृद्धिविजयगणि
आप सत्यविजयगणि के शिष्य थे। इन्होने सं. 1733 में जो 'उपदेशमाला बालावबोध' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उसमें उपाध्याय यशोविजयजी की प्रेरणा मार्गदर्शन एवं मदद प्राप्त हुई, ऐसा स्वयं वृद्धिविजयगणि ने उल्लेख किया है।
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उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ से उद्धृत, संपादक प्रद्युम्नविजयजी, जयंत कोठारी, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 39
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