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हो सकती थी। इनकी अध्यात्म भावना इतनी प्रबल थी कि –“एक जैन साधु से अपेक्षित संपूर्ण आचार का पालन करने में मैं असमर्थ हूं।" ऐसा साहसपूर्वक स्वीकार किया है। अध्यात्मसार के अनुभव अधिकार में आपने स्पष्ट रूप से लिखा है कि -
अवलंब्येच्छायोगं पूर्णाचरासहिष्णुवश्च वयम् भक्त्या परममुनिनां तदीय पदवीमनुसरायः (29)
गुणानुरागता -
आनंदधनजी और यशोविजयजी दोनों समकालीन थे। परन्तु प्रारम्भ के वर्षों में वे एक-दूसरे से मिल नहीं पाये। महान अध्यात्मयोगी और ज्ञानवृद्ध आनंदधनजी से मिलने के लिए यशोविजयजी बहुत ही उत्सुक और आतुर थे। इनको जब आनंदधनजी के दर्शन हुए तब अपार हर्षानुभूति हुई और आनंद की सीमा नहीं रही। यशोविजयजी के शब्दों में -
ऐ ही आज आनंद भयो मेरे
तेरो मुख निरख, रोम रोम शीतल भयो अंगो अंग इससे यह भी प्रतीत होता है कि यशोविजयजी प्रचण्ड तेजस्वी विद्वान होते हुए स्वयं से गुणाधिकों के प्रति तीव्र गुणानुराग रखते थे। आनंदधनजी के प्रति इतना अधिक गुणानुरागता और बहुमान के भाव थे कि इनकी स्तुति रूप में 'अष्टपदी नामक कृति ही रच डाली।
_इस प्रकार प्रचण्ड पांडित्य के साथ तीव्र गुणानुरागता के दर्शन हो पाना परम दुर्लभ संयोग है।
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33 माहरे तो गुरूचरणपसाये अनुभव दिलमांही पेठो ऋद्धिवृद्धि प्रगटी घरमाहे आतमरति हुई बैठो रे.
श्रीपालरास
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