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उपाध्याय यशोविजय जी का कृतित्व
यशोविजयजी जैन परंपरा में बहुश्रुत दार्शनिक, प्रखर न्यायाचार्य, काव्यमीमांसक और सर्जककवि आदि शतमुख प्रतिभा संपन्न युग प्रभावक उपाध्याय हुए हैं। जिस प्रकार किसान वर्षाऋतु के आगमन के पूर्व भूमि को कोमल करके बीजों का वपन करता है और वर्षाकाल के समाप्ति के पश्चात् लहलहाती फसल को प्राप्त करता है, उसी प्रकार यशोविजयजी ने बालवय में गुरूमहाराज से, काशी के भट्टाचार्य से एवं आगरा के न्यायाचार्य से जो विद्या सीखी थी, उसके फलस्वरूप संस्कृत, प्राकृत, गुजराती मिश्रित राजस्थानी भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन करके जैन वाङ्मय को न केवल समृद्ध किया,अपितु उसे तार्किक सुदृढ़ता भी प्रदान की।
दर्शन, न्याय, अध्यात्म और साहित्य से सम्बन्धित कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिस पर उपाध्याय यशोविजयजी की कलम नहीं चली हो। तर्क, न्याय, प्रमाण, नव्यन्याय, अध्यात्म, तत्त्वज्ञान, आचार, काव्य, कथा, व्याकरण आदि अनेक विषयों पर उन्होनें मूल एवं टीका ग्रन्थों की रचना करके अपने मौलिक गंभीर चिन्तन को प्रस्तुत किया है। इनकी कृतियों में सूक्ष्मता, स्पष्टता और समन्वयशीलता के संयोजन के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इनकी रचनाओं में सामान्य व्यक्ति भी सरलता से समझ सके और अध्यात्म भक्तिरस में डूब सके, ऐसा सामर्थ्य है। कथाप्रधान रास, स्तवन, सज्झाय आदि सामान्य जनोपयोगी उनकी सरस रचनाएँ हैं, तो दूसरी ओर प्रखर विद्वानों की विद्वता को भी चुनौती दे, ऐसे तर्कशास्त्र के कठिन ग्रन्थों का प्रणयन भी उन्होंने किया है। यह यशोविजयजी की अनूठी विशेषता है कि जहाँ एक ओर उन्होंने स्वयं को तार्किक, दार्शनिक के रूप में प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरी ओर एक सहृदय कवि के रूप में भी स्वयं को प्रस्तुत किया है।
‘उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ में जितेन्द्र देसाई के मन्तव्यानुसार यदि हम यशोविजयजी को सांप्रदायिक दुराग्रहों से मुक्त समन्वयवादी तत्त्वान्वेषी कहें, तो
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