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अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि यशोविजयजी ने जैनयोग के सूक्ष्म और रोचक निरूपण के साथ उन संदर्भो में भगवद्गीता और पतंजली के योगसूत्र का उपयोग करके जैनयोग और ध्यान विषयक विचारों में दोनों धाराओं का समन्वय किया है।
यशोविजयजी की अनेक कृतियाँ स्वतन्त्र रूप से रचित हैं तो अनेक कृतियाँ प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों की व्याख्या या टीका रूप भी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है, कि उपाध्यायजी द्वारा प्रणीत संपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं होता है। फिर भी जो साहित्य उपलब्ध है, उनमें यशोविजयजी का प्रखर पाण्डित्य, मौलिकता, तर्कशीलता, दार्शनिकता और चिन्तन की गहराई का दिग्दर्शन होता है। ‘उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद' नामक शोध-प्रबन्ध के आधार पर यशोविजयजी के द्वारा रचित ग्रन्थों का सामान्य परिचय इस प्रकार है।
यशोविजयजी के विपुल साहित्य रचनाओं को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
__ शास्त्राभ्यास एवं गुरू परंपरा से प्राप्त अनुभव के आधार पर स्वरचित
संस्कृत और प्राकृत भाषा के स्वोपज्ञटीका सहित तथा स्वोपज्ञ टीका रहित ग्रन्थ। पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों पर संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ ।
गुजराती भाषा में सरल और रसप्रद काव्यमय रचनाएँ
स्वोपज्ञ टीका सहित प्राकृत तथा संस्कृत के मौलिक ग्रन्थ -
1. अध्यात्ममतपरीक्षा :
अध्यात्ममत परीक्षा 184 गाथा परिमाण प्राकृत भाषा में रचित ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ पर हजार श्लोक परिमाण टीका भी रची गई है। मूल ग्रन्थ तथा टीका में यशोविजयजी ने मुख्य रूप से दिगम्बर आचार्यों द्वारा केवलीभुक्ति, स्त्रीमुक्ति के
34 उपाध्याय यशोविजयजी स्वाध्याय ग्रंथ, संपादको-प्रद्युम्नविजय, जयंत कोठार, कांतिभाई बी. शाह, पृ. 42 35 उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद, डॉ. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ. 34
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