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खण्डन तथा करपात्र भोजन और नाग्न्य धारण के समर्थन में जो युक्तियाँ प्रस्तुत की गई है, उनकी समीक्षा की गई है। श्वेताम्बर परंपरा के विपरीत दिगम्बरों की दूसरी मान्यता यह है कि तीर्थकरों का परमौदारिक शरीर रक्त, मांस, मलमूत्र आदि से रहित होता है। इसका भी खण्डन किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में दिगम्बर मान्यताओं का खण्डन करके श्वेताम्बर मान्यताओं की पुष्टि की गई है।
2. गुरूतत्त्वविनिश्चय :
प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत भाषा में 905 गाथाओं से रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए स्वयं यशोविजयजी ने 7000 श्लोक परिमाण संस्कृत भाषा में गद्यात्मक टीका लिखी हैं इस ग्रन्थ के चार उल्लासों में गुरूतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है।
3. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका :
द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 1024 श्लोक प्रमाण पद्यमय काव्य है। वस्तुतः यह 32-32 श्लोकों में 32 बत्तीस विषयों पर लिखे गये 32 लघुग्रन्थों का संग्रह है। इनमें दान, देशना, मार्ग, जिनमहत्त्व, भक्ति, साधुसामग्य, धर्मव्यवस्था, वादकथा, योगलक्षण, पातंजलयोगलक्षण, पूर्वसेवा, मुक्ति अद्वेषप्राधान्य, अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, ईशानग्रह, दैवपुरूषकार, योगभेद, योगविवेक, योगावतार, मित्रा, तारादित्रय, कुतर्कग्रहनिवृति, सदृष्टि, क्लेशहानोपाय, योग महात्मय, भिक्षु, दीक्षा, विनय, केवलीभुक्तिव्यवस्थापन, मुक्ति, सज्जनस्तुति इत्यादि 32 विषयों का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करने के लिए 32 विभाग करके प्रत्येक विभाग में 32-32 श्लोकों की रचना की गई है। मुख्यरूप से हरिभद्र के अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु एवं उपदेशपद एवं पातंजल योगदर्शन इन ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयों का प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिपादन किया गया है और इन विषयों को स्पष्ट किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की यह विशेषता है कि प्रत्येक बत्तीसी के अंतिम श्लोक में ‘परमानंद' शब्द आया है।
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