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इस ग्रन्थ पर उपाध्यायजी ने 'तत्त्वार्थदीपिका' नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति का नाम तत्त्वार्थदीपिका है ऐसा प्रशस्ति के श्लोक से ज्ञात होता है, यथा -
"यशोविजयनाम्ना तच्चरणांभोजसेविना द्वात्रिंशिकानां विवृतिश्चक्रे तत्त्वार्थदीपिका।।"
4. नयोपदेश :
इस ग्रन्थ में यशोविजयजी ने सात नयों का स्वरूप समझाया है और प्रस्थक-प्रदेश आदि का उदाहरण दिया है। इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय के स्पष्टीकरण के लिए टीका की भी रचना की गई है जिसका नाम तरंगिणी है।
5. प्रतिमाशतक :
उपाध्याय यशोविजयजी ने मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले स्थानकवासी परंपरा की समीक्षा करने हेतु एवं उन्हें मूलभूत जैन सिद्धान्तों से अवगत कराने हेतु 'प्रतिमाशतक' नामक काव्यमय ग्रन्थ की रचना की। मूल ग्रन्थ में श्लोक संख्या 100 हैं। इस ग्रन्थ में मुख्य चार वादस्थान है - 1. प्रतिमा की पूज्यता, 2. क्या विधि कारित प्रतिमाकीही पूज्यता है ?, 3. क्या द्रव्यस्तव में शुभाशुभ मिश्रता है ? 4. द्रव्यस्तव पुण्यस्वरूप है या धर्मरूप हैं। यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका भी लिखी है।
इस ग्रन्थ में प्रतिमालोपकों की मान्यता के विपरीत द्रव्यपूजा और स्तव को प्रमाणित करने के लिए आगम एवं प्रकरण ग्रन्थों के पाठों के प्रमाण दिए गए हैं। जैसे महानिशीथ का पाठ, भगवतीसूत्रगत चमर उत्पाद का पाठ, ज्ञातासूत्रगत सुधर्मासभा विषयक पाठ, आवश्यकनियुक्तिगत अरिहंत चेइयाणं का पाठ, आचारांग सूत्रगत परिवंदन विषयक पाठ, प्रश्नव्याकरणगत सुवर्णगुलिका का उदाहरण, ज्ञाताधर्म
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