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________________ 210 ऐसा द्रव्यार्थिक नय का भेद भी करना चाहिए। इसका कारण स्पष्ट है कि जैसे कर्म रूप पुद्गल के संयोग से जीव क्रोधी, मानी होता है तो पुद्गल भी जीव द्वारा ग्रहित होकर अनेक रूप में (शरीर, कर्म आदि) परिणत होता है। इस दृष्टि से यदि एक-एक उदाहरण की अपेक्षा से एक-एक नय का भेद करते जायेंगे तो अनंत नय हो जायेंगे।541 तीसरा दोष यह है कि प्रस्थक आदि उदाहरण से नैगम नय के शुद्ध, अशुद्ध और अशुद्धतर ऐसे भेद किये गये हैं।542 प्रस्थक आदि उदाहरण में दूरवर्ती कारण से लेकर निकटतम कारण तक "मैं प्रस्थक बनाता हूं' ऐसा उपचार हो जाने से यह नैगमनय के ही अशुद्ध आदि भेद में अन्तरनिहित होते हैं। परन्तु द्रव्यार्थिक नय के जो दस भेद किये गये हैं, उन किसी भी भेद में नैगमनय के शुद्ध, अशुद्ध आदि भेद समावेश नहीं होने से देवसेन कृत नय भेद अपूर्ण है। ___यदि दिगम्बर आचार्य अपनी बात को रखने के लिए ऐसा कहते हैं कि "प्रस्थकादि का उदाहरण" उपचार विशेष होने से नैगमनय का विषय न होकर, उपनय का विषय है तो सूत्र विरूद्ध परूपणा करने से उत्सूत्र भाषण का दोष लगता है। क्योंकि अनुयोगद्वारसूत्र में प्रस्थक आदि उदाहरणों को नैगम नय के भेदों के रूप में ही दर्शाया है, न कि उपनय के भेदों के रूप में। महोपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेन आचार्य द्वारा स्वीकृत द्रव्यार्थिक नय के दस भेद तथा पर्यायार्थिक नय के छह भेदों की निरर्थकता को अनेक सुसंगत दलीलों के द्वारा सिद्ध करने के पश्चात् इनके द्वारा उपदिष्ट उपनयों की कल्पना को भी शास्त्रीय संदर्भो द्वारा समीक्षा की है। 541 तथा कर्मोपाधिसापेक्ष जीवभाव ग्राहक द्रव्यार्थिकनय ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8/18 542 तथा प्रस्थकादि दृष्टान्तई नैगमादिकना अशुद्ध अशुद्धतर ............ द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 8/18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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