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उपनय व्यवहार और नैगमनय में अर्न्तभावित है
'जो नयों के समीप रहता है तथा जिसमें उपचार की मुख्यता है वह उपनय है' यदि उपनय की ऐसी परिभाषा माने है तो उपनय के सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार और उपचरित असद्भूत व्यवहार इन तीनों भेदों का समावेश नैगमनय और व्यवहारनय में हो जाता है। क्योंकि नैगमनय और व्यवहारनय का विषय उपचार भेद भी है। इस विषय में यशोविजयजी ने तत्त्वार्थसूत्र का संदर्भ दिया है -
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एह ज दढइ छइ, उपनय पणि कहया, ते नय व्यवहार नैगमादिकर्थ । अलग नथी। उक्तं च तत्त्वार्थसूत्रे 'उपचारबहुलो विस्तृतार्थो लौकिकप्रायो व्यवहार: 1543
ज्ञातव्य यशोविजयजी द्वारा उल्लेखित यह पाठ तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में निम्नरूप से मिलता है लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहारः " ए:544 जहां तक हमारी
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जानकारी है हमें ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के टब्बा में उद्धृत पाठ और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के पाठ में शब्द भेद होने पर भी विशेष कोई अर्थभेद नहीं है।
व्यवहारनय लोक व्यवहार का अनुसरण करने वाला अर्थात् उपचार को माननेवाला और विस्तृत अर्थवाला होता है। इस प्रकार जो विषय नयों में ही समा जाता है, फिर उसके लिए उपनय की कल्पना अनावश्यक है।
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इस प्रकार नयों के भेदों को ही उपनय के रूप में कल्पना करके उपनय को मानते हैं तो प्रमाणज्ञान के एकदेश को उपप्रमाण के रूप में स्वीकारना चाहिए 45 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणं इसका अभिप्राय है जो स्व और पर अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय का निर्णय करता है, वह प्रमाण है | 546 इस व्याख्या के अनुसार प्रमाणज्ञान के एकदेश मतिज्ञानादि या उनके अवग्रह, ईहा, उपाय, धारणा आदि सभी को उपप्रमाण
543 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/19 का टब्बा
544 तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1 / 35 पर भाष्य
545 ए लक्षणई लक्षित ज्ञानरूप प्रमाणनो एकदेशमतिज्ञानादिक
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक - धीरजलाला डाह्यालाल महेता, पृ. 345
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 8/19
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