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कहना चाहिए।47 क्योंकि नय के समीपवर्ती उपनय है तो प्रमाण के निकटवर्ती उपप्रमाण होगा। मतिज्ञानादि उत्तरभेद और अवग्रह आदि उनके उत्तरभेद प्रमाण के ही अंश-प्रत्यांश होने के कारण प्रमाण के पासवर्ती हैं। इस कारण से मतिज्ञानादि को उपप्रमाण कहना चाहिए। परन्तु जैन शास्त्रों (आगम) में उपनय और उपप्रमाण जैसे शब्द तथा इनका अर्थ और उदाहरण कहीं भी देखने में नहीं आता है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने निश्चय और व्यवहार नय के दिगम्बर आचार्य देवसेन मान्य लक्षण, स्वरूप आदि की मध्यस्थ भावों से सुन्दर समीक्षा की है।
___ अध्यात्म नय के उपचार और अनुपचार के आधार पर निश्चयनय और व्यवहारनय ऐसे दो भेद किये गये हैं। दिगम्बर विद्वानों ने उपचार का अर्थ अवास्तविक, मिथ्या, अभूतार्थ, काल्पनिक इत्यादि करके निश्चयनय को वास्तविक नय और व्यवहारनय को मिथ्यानय माना है। निश्चयनय के उदाहरणों में उपचार विना के उदाहरण और व्यवहारनय के लिए उपचार वाले दृष्टान्त दिए हैं। परन्तु निश्चयनय की दृष्टि उपचार रहित और व्यवहारनय की दृष्टि उपचार वाली है, ऐसे कहने के लिए कोई आधार नहीं है। क्योंकि उपचार का अर्थ काल्पनिक या मिथ्या नहीं अपितु गौण-अमुख्य–अप्रधान है।48 कोई भी नय तभी सुनय होता है जब अपने विषय को मुख्य रूप से प्रतिपादन करने पर भी अन्य नय के विषयों को अस्वीकार या विरोध न करे। अन्यथा एकान्त प्रतिपादन करने के कारण कुनय अथवा मिथ्या नय हो जायेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि नय वही है जो प्रतीपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता का अभिप्राय है।549 इस कथनानुसार जब एक नय की मुख्यवृत्ति रहती है तो अन्य नय की गौण वृत्ति (उपचारवृत्ति) रहती है। अतः किसी विषय के प्रतिपादन में निश्चयनय की मुख्यवृत्ति होती है तो व्यवहारनय की भी उपचारवृत्ति अवश्य होती है। उसी प्रकार जब
547 प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार, सूत्र-2 548 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1, लेखक-धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 347 549 तत्राऽनिराकृतपतिपक्षो ............... प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 657
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