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आचार्य पूज्यपाद ने द्रव्य को इस प्रकार व्याख्यायित किया है जो गुणों के द्वारा प्राप्त हुआ था या गुणों को प्राप्त हुआ था, अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं। 004 यह द्रव्य का गुण प्रधान अर्थ है। किन्तु सर्वार्थसिद्धि के पंचम अध्याय में उन्होंने द्रव्य की पर्याय के आधार व्याख्यायित किया है। जो यथायोग्य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त होता है या पर्यायों को प्राप्त होता है, वह द्रव्य कहलाता है 105
1.
जैन दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टियों से पृथक्-पृथक् रूप से द्रव्य को परिभाषित किया है। चूंकि द्रव्य का स्वरूप परिणमनशीन और ध्रुवशील रूप से उभयरूप होने से कुछ दार्शनिकों ने द्रव्य की परिणमनशीलता को मुख्य मानकर द्रव्य को व्याख्यायित किया है तो कुछ दार्शनिकों ने ध्रुवपक्ष के आधार पर द्रव्य को परिभाषित किया है। अन्य कुछ दार्शनिकों ने अस्तित्व को ही द्रव्य का लक्षण बताया है । अतः जैनागम और परवर्ती जैन साहित्य में उपलब्ध द्रव्य की विभिन्न परिभाषाओं को हम इस प्रकार वर्गीकरण कर सकते हैं :
2.
3.
4.
5.
सत् या अस्तित्व गुण के आधार पर
गुणों के आधार पर
पर्याय के आधार पर
गुण और पर्याय के आधार पर
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के आधार पर
604
'गुणैगुणान्वा द्रुतं गतं
सर्वाथसिद्धि, 1/5
605 यथास्वं पर्यायैर्द्रुयन्ते द्रवन्ति वा तानि इति द्रव्याणि ।
1606 दव्वं सल्लक्खणयं उत्पादव्यय
पंचास्तिकाय, गा. 10
1. सत् के आधार पर :
पंचास्तिकाय ̈ ̈ ̈ में आचार्य कुन्दकुन्द ने 'दव्वं सल्लक्खणयं' कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है। सामान्य रूप से 'सत्' के अनेक अर्थ हो सकते हैं। परन्तु
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वही, 5 / 2
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