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आचार्य समन्तभद्र ने नयोपनय के विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायों का अभिन्न संबंध रूप समुच्चय को द्रव्य शब्द से अभिव्यंजित किया है।800
इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव, विद्यानंदी, अमृतचंद्र, अमितगति, प्रभाचंद्र, अभयदेव, हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य, उपाध्याय यशोविजयजी आदि-आदि ने द्रव्यों के व्याख्या प्रसंग में उनके लक्षणों का निर्देश किया है। इन सभी जैन दार्शनिकों ने प्रायः सत्, तत्त्व और द्रव्य को पर्यायवाची मानकर ही व्याख्या की है। किन्तु शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इन तीनों में अन्तर स्पष्ट परिलक्षित होता है। सत् सभी द्रव्यों और तत्त्वों में विद्यमान सामान्य लक्षण है। सत् सामान्यात्मक है, तत्त्व शब्द सामान्य विशेषात्मक है और द्रव्य विशेषात्मक है। सत् शब्द सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष का, द्रव्य शब्द परिवर्तनशील पक्ष का और तत्त्व उभयपक्ष का सूचक है। सत् शब्द द्रव्य के भेदों में भी अभेद को ग्रहण करता है, तत्त्व भेदाभेद को ग्रहण करता है और द्रव्य शब्द द्रव्यों के लक्षणगत् विशेषताओं के आधार पर उनमें भेद करता है।601
द्रव्य का निरूक्त्यार्थ एवं विभिन्न परिभाषाएं -
निरूक्त्यार्थ :
'द्रव्यं भव्ये' इस व्याकरण सूत्रानुसार 'द्रु' की तरह जो हो वह द्रव्य है। जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी 'द्रु' अर्थात् लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबल, कुर्सी आदि अनेक आकार को प्राप्त होती है। उसी तरह द्रव्य भी बाह्य व आभ्यन्तर कारणों से उन-उन अवस्थाओं या पर्यायों को प्राप्त होता रहता है।602
___ आचार्य कुन्दकुन्द के मन्तव्य में जो उन-उन क्रमभावी और सहभावी स्वभाव पर्यायों को प्राप्त होता है, वह द्रव्य है या जो सत्ता से अनन्यभूतहै,वह द्रव्य है।603
600 आप्तमीमांसा, श्लो. 107 601 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, प्रो. सागरमल जैन, पृ.7 602 जैनेन्द्र व्याकरण - 4/1/158 (राजवार्तिक से उद्धृत) 603 दवियदि गच्छदि ताई ताई - पंचास्तिकाय, गा. 9
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