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________________ आलोक में ही कही जा सकती है। क्योंकि जो एकान्त के प्रति आग्रहशील होता है वह अन्य सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता है और ऐसी स्थिति में पूर्ण सत्य से अनभिज्ञ ही रहता है। पूर्ण सत्य की प्राप्ति अनेकान्त से ही होती है। गोपी को नवनीत की प्राप्ति तभी होती है, जब वह मथानी की एक रस्सी के छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है। इसी प्रकार एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को मुख्य बनाने पर ही सत्य का अमृत हाथ लगता अनेकान्तवाद रूपी सूर्य के उदित होने पर सारे एकान्तवाद के घनघोर बादल तितर-बितर होकर अस्तित्वहीन हो जाते हैं। अनेकान्त की उपस्थिति में सारे संघर्ष, मतभेद और वैमनस्य का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। एकांगी और दुराग्रही दृष्टिकोण की पकड़ कमजोर पड़ते ही संघर्ष समाप्त हो जाता है। समस्या चाहे व्यवहार की हो या अध्यात्म की, दर्शन की हो या राजनीति की, सारी समस्याएँ अनेकान्त के आधार पर सुलझाई जा सकती हैं। संसार के स्थूल और सूक्ष्म दोनों पर्यायों (परिवर्तनों) को जानने के लिए अनेकान्त श्रेष्ठ दार्शनिक पद्धति है। इससे संघर्ष की चिंगारियां स्वतः समाप्त हो जायेंगी और अन्ततः विश्वशान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।99 डॉ. सागरमल जैन ने भी अनेकान्त को दार्शनिक सिद्धान्त की अपेक्षा एक व्यावहारिक पद्धति ही अधिक कहा है।99 इस प्रकार अनेकान्तवाद सब दर्शनों की धुरी के रूप में है। दार्शनिक समस्याओं की बात तो दूर रही दैनिक जीवन का व्यवहार, अर्थात् समाज और परिवार के सम्बन्धों का निर्वाह भी अनेकान्त के बिना नहीं होता है। आचार्य सिद्धसेन का कथन है कि जिसके बिना लोक-व्यवहार का निर्वाह भी नहीं होता, उस जगत के एकमात्र गुरू अनेकान्तवाद को नमस्कार है।100 97 एकेनाकर्षन्ति श्लययन्ति वस्तुतत्त्वमितरेण अन्तेन जयति जैनी नितिर्मन्थाननेत्रमीव गोपी .. .............. पुरूषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 225 9 अनेकान्त है तीसरा नेत्र, आ. महाप्रज्ञ, प्रस्तुति 99 अनेकान्त, स्यावाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 1 100 जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिवडइ तस्स भुवणेक्क गुरूणों णमो अणेगंत वायस्स .... .............. सन्मति तर्क प्रकरण, 3/70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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