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स्याद्वाद और सप्तभंगी :
अनेकान्तवाद जैनदर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। संपूर्ण जैनदर्शन रूपी इमारत अनेकान्तवाद की नींव पर ही आधारित है। देवेन्द्र मुनि का कथन है कि "अनेकान्तवाद जैनदर्शन का हृदय है। जैन वाड्.मय के प्रत्येक शब्द में अनेकान्तवाद का प्राणतत्त्व समाहित है।101" इस अनेकान्तवाद की व्याख्या जैनाचार्यों ने इस प्रकार की है –“वस्तु में निहित परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले गुणधर्मों को स्पष्ट करना अनेकान्त है।102." यह अनेकान्त दृष्टि जब सिद्धान्त का रूप ले लेती है तब उसे अनेकान्तवाद कहा जाता है।
जैनदृष्टि के अनुसार वस्तु में अनन्त धर्म हैं। इन भावात्मक और अभावात्मक अनन्त गुण धर्मों से कुछ धर्म व्यक्त और अन्य कुछ धर्म अव्यक्त होते हैं। साधारण मनुष्य का ज्ञान इन्द्रिय और बुद्धि सापेक्ष होने के कारण सीमित और अपूर्ण है। इस सीमित ज्ञान से वस्तु के अव्यक्त गुण धर्मों को जानना असंभव हो जाता है। दूसरी ओर जो कुछ जाना गया है, उसे समग्ररूप से एक ही कथन में अभिव्यक्त करना भी असंभव है, क्योंकि भाषा की सीमा, ज्ञान की सीमा से भी न्यून है। उदाहरणार्थ किसी पुस्तक को देखते ही उसके रूप, रंग, मोटाई, लम्बाई, चौड़ाई, वजन, नाम आदि अनेक पहलुओं का ज्ञान तो हो जाता है, परन्तु इन समस्त पहलुओं को एक वाक्य में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है।03 ज्ञान और भाषा की सीमा को अनदेखा करके अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन किया जाय तो वस्तु के किसी एक गुण धर्म का विधान और अन्य गुणधर्मों का निषेध हो जाने से वह एकान्तिक कथन मिथ्या
हो जाएगा। क्योंकि वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है। न सर्वथा नित्य । है और न सर्वथा अनित्य है, न अपने गुणधर्मों से सर्वथा भिन्न है और न ही सर्वथा अभिन्न है। किन्तु अपने भावात्मक गुण धर्मों की दृष्टि से जो सत् है, वही तो अपने
101 जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 252
102 न्यायदीपिका ' श्लो. 3/76 100 स्याद्वाद और सप्तभंगीनय, पृ. 50
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