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अपने अभावात्मक गुणधर्मों की दृष्टि से असत् है। जो किसी दृष्टि से नित्य है, वही तो किसी अन्य दृष्टि से अनित्य है। अतः भाषा की कोई ऐसी पद्धति चाहिए जो वस्तु के समग्र गुण धर्मों को अभिव्यक्त कर सके और साथ ही किसी भी गुणधर्म का निषेध न करे। ऐसी भाषा पद्धति ही स्याद्वाद है जो अनन्त धर्मात्मक और अनेकान्तिक वस्तु का यथार्थ स्वरूप को प्रतिपादन करती है। सर्वथा सत् और असत्, सर्वथा नित्य और अनित्य इत्यादि एकान्त कथनों का निराकरण करके वस्तु को कथंचित् सत्, कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि कहना अनेकान्तवाद है और इस अनेकान्तात्मक स्वरूप को प्रकाशित करने की विधि स्याद्वाद है।104 अनेकान्तवाद सत्ता के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करता है और स्याद्वाद अनेकान्तात्मक वस्तु के प्रतिपादन का सिद्धान्त है।105 अनेकान्तवाद की भाषात्मक अभिव्यक्ति के प्रारूप ही स्याद्वाद और सप्तभंगी है।06 स्याद्वाद भिन्न-भिन्न अपेक्षा से वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्मों का सापेक्ष रूप से निरूपण करता है। स्यात का अभिप्राय है – कथंचित् या विवक्षित दृष्टि से अनेकान्त रूप से कथन करना, प्रतिपादन करना ही स्याद्वाद है।
आप्तमीमांसा'08 के अनुसार जो किंचित् कथंचित्, कथंचन, आदि शब्दों के द्वारा एकान्त का निराकरण करके सप्तभंगीनय के माध्यम से विवेक्षित का विधान और अविवेक्षित का निषेध करता है, वह स्याद्वाद है।
डॉ. सागरमलजी का कथन है कि –“स्याद्वाद सिद्धान्त वस्तु को विभिन्न दृष्टियों से विश्लेषित करके उन विश्लेषित निर्णयों को एक ऐसी भाषा में प्रस्तुत करता है, जो अपने पक्ष का प्रतिपादन करते हुए भी वस्तु के अन्य अनेकानेक अनुक्त
104 अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वाद :- लघीयस्त्रय टीका - न्यायकुमुदचन्द्र,
तृतीयः प्रवचनं प्रवेशः, श्लो. 62 की टीका 105 जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण - पृ. 231 106 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी – पृ. 22 107 स.सा./ता.व. स्याद्वाद अधिकार/513/17 स्यात्कथंचित विवक्षित प्रकारेणानेकान्त रूपेण वदनं वादो
जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वादः। - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 4, पृ. 498 108 स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् निवृत्तचिद्विधिः – आप्तमीमांसा, श्लो. 104
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