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धर्मों एवं पर्यायों का निषेध नहीं करता है। 109" स्याद्वाद सापेक्ष सिद्धान्त है जो वस्तु तत्त्व में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले नित्यानित्यता, सतासत्, भेदाभेद इत्यादि धर्मों का सापेक्षिक प्रतिपादन करके उनमें समन्वय प्रस्तुत करता है। संक्षेप में स्याद्वाद वस्तु के अन्य धर्मों का विधान या निषेध नहीं करते हुए वस्तु के किसी एक धर्म विशेष का विधान करता है।
स्याद्वाद में दो शब्द हैं – स्यात् और वाद । स्यात् शब्द तिङन्त पद न होकर अव्यय है। जिसका अर्थ है – कथंचित्, अपेक्षा विशेष, दृष्टि विशेष। वाद का अर्थ है सिद्धान्त, प्रतिपादन या मत। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ होगा - स्यात्पूर्वक वाद करना या सापेक्षिक रूप से प्रतिपादन करना। जैनदर्शन के अनुसार वही कथन सत्य है जो सापेक्ष होता है। आधुनिक सापेक्षवाद के जनक प्रो. अलबर्ट आइंस्टीन का भी यह मन्तव्य था कि हम सिर्फ आपेक्षिक सत्य को ही ज्ञात कर सकते हैं, संपूर्ण सत्य को तो सर्वज्ञ ही जान सक्ता है।110 आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार स्यात् शब्द अपेक्षा की ओर संकेत करता है। जो कुछ कहा गया है और जो कुछ कहा जा रहा है, वह किसी अपेक्षा से ही कहा जाता है। अपेक्षा को नहीं समझने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है।111
इस विवेचन से यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद में निहित 'स्यात' शब्द, एक ओर वस्तु में विद्यमान अनेक गुणधर्मों का अपेक्षाविशेष से बोधक बनकर अनेकान्त का द्योतन करता है तो दूसरी ओर वस्तु के सभी गुण धर्मों के अपेक्षित विवक्षाओं का वाचक बन जाता है। 12 स्याद्वाद मंजरी के अनुसार स्यात् एक अव्यय है जो एकान्त का निराकरण और अनेकान्त का प्रतिपादन करता है। 13 इस प्रकार ‘स्यात्' शब्द का
109 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, प्र. 23 110 We can only know the relative truth. The obsolute truth is known only to the universal observer. -
Cosmology: Old and New. P. 201 ॥ अनेकान्त है तीसरा नेत्र – पृ. 44 im आप्तमीमांसा, का. 14 113 स्यादित्यव्ययअनेकान्तद्योतकं ततः स्याद्वादः – स्याद्वादमंजरी, श्लो. 25 की टीका
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