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अर्थ शायद, संभवतः, कदाचित् नहीं है। ‘स्यात' शब्द सुनिश्चित सापेक्ष दृष्टिकोण का द्योतक है।
अतएव अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन के लिए और अन्य को वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध कराने के लिए स्याद्वाद ही श्रेष्ठ भाषा प्रणाली है। अनेकान्त वस्तु स्वरूप है और स्याद्वाद उस अनेकान्तिक वस्तु स्वरूप के कथन की शैली है। अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है। वस्तुतत्त्व के संपूर्ण धर्मों का युगपत् कथन संभव नहीं होने के कारण वक्ता अपनी विवक्षा के अनुसार किसी विशेष धर्म को मुख्य बनाकर तथा अन्य सभी धर्मों को गौण बनाकर कथन करता है। परन्तु श्रोता को मुख्य धर्म के साथ अन्य गौण धर्मों का भी बोध हो, इस दृष्टि से 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करके ही अनेकान्तवादी अपना कथन प्रस्तुत करता है। 14 इस दृष्टि से ही डॉ. पद्मराजे ने कहा है कि –'अनेकान्तवाद का स्थान जैनदर्श में हृदय का है तो नयवाद और स्याद्वाद का स्थान उसके रक्तवाहिनी धमनियों का है। अनेकान्तवाद रूपी पक्षी नयवाद और स्याद्वाद रूपी पंखों से उड़ता
है।115
उपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक भेदाभेद सम्बन्ध को सप्तभंगी और नयवाद के आधार पर ही सिद्ध किया है। रास की चतुर्थ ढाल में द्रव्य, गुण, पर्याय के भेदाभेद सम्बन्ध को सप्तभंगी के आधार पर समझाया है और 5, 6, 7, 8 ढालों में नयवाद की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की है। जिसकी चर्चा हम षष्ठम् अध्याय में करेंगे।
114 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 4, पृ. 497
115 Anekanta is the heart of Jain Metaphysics and Nayavada and Syadvada (or Saptbhangi) are its main arteries. or to use a happier metaphor, the bird of Anekantavada flies on tis two wings of Nayavada and Syadavada. - late Dr. Y.J. Padmarajiah - A comparative study of the Jain Theories of Reality and Knowledge. P. 273
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