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कारण यह सर्वाधार है।309 परन्तु आकाश का कोई आधार नहीं है। वह स्वप्रतिष्ठित है। आकाश को किसी अन्य द्रव्य द्वारा अवगाहित मानने पर उसका भी आधार मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसी स्थिति में अनवस्था दोष उत्पन्न हो जायेगा।310
यद्यपि आकाश, जीव और पुद्गल की तरह धर्म और अधर्म को स्थान देता है, परन्तु दोनों में अन्तर है। धर्म और अधर्म द्रव्य भी आकाश में अवगाहित होते हैं, फिर भी इनमें जल में हंस की तरह पौर्वापर्य सम्बन्ध या आधार-आधेय सम्बन्ध नहीं है, अपितु संपूर्ण शरीर में आत्मा की भांति या तिल में तेल की तरह धर्म, अधर्म द्रव्य संपूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके रहते हैं।11 जीव और पुद्गल जल में हंस की तरह अल्पक्षेत्र और असंख्येय भाग को अवगाहित करके रहते हैं। ये गतिशील द्रव्य होने से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। अतः आकाश उनके अवगाह में संयोग और विभाग द्वारा उपकार करता है।912
आकाशास्तिकाय के दो भेद -
___यशोविजयजी ने भगवतीसूत्र तथा ठाणांगसूत्र की "दुविहे आगेसे पण्णते तं जहा- लोयागासेय अलोयागासे य" इस पंक्ति को उद्धृत करके आगमिक परंपरा के अनुसार आकाशास्तिकाय के लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में दो भेद किये हैं।13 आकाशास्तिकाय सर्वव्यापी अखंड द्रव्य होने के बावजूद भी अन्य द्रव्यों की विद्यमानता या अविद्यमानता के आधार पर लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में विभक्त किया गया है। यह विभाग किसी दीवार की तरह नहीं है जो लोक–अलोक के रूप में भेद करती है। लोक और अलोक का मुख्य विभाजक तत्त्व है -
809 सर्व द्रव्यनइंजे सर्वदा साधारण अवकाश दिइं,
ते अनुगत एक आकाशास्तिकाय सर्वाधार कहिंइं .................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा.10/8 का टब्बा 810 तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 5/12/ 8।। सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र 5/13/257 812 वही, 5/18/262 813 सर्व द्रव्यनइं रे जे दिइ सर्वदा ..
द्रव्यगणपयायेनोरास, गा. 10/8
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