________________
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय । जहां इन दो द्रव्यों की उपस्थिति रहेगी, वहां गति - स्थिति होगी। जहां गति- स्थिति होगी वहां गति- स्थिति करने वाले जीव, पुद्गल द्रव्यों की अवस्थिति रहेगी । 'लुक' धातु का अर्थ है देखना। जहां तक जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं, वह लोक है। 814 धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्यों से संयुक्त आकाश लोकाकाश के नाम से अभिव्यंजित किया जाता है एवं इनसे वियुक्त आकाश अलोकाकाश कहलाता है। 815 लोकाकाश चारों ओर से अवधिवाला है । अधः मध्य और ऊर्ध्व रूप से तीन विभागों में विभक्त है । चौदह रज्जु ऊंचा और सात रज्जु चौड़ा है यह लोकाकाश पैर फैलाकर कमर पर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए मनुष्य के आकार का है। पैर की आकृतिवाले नीचे के भाग में सात नरक हैं। कटिप्रदेश में मर्त्यलोक है। इसके ऊपर देवलोक है। लोक के अग्रभाग पर सिद्धशिला है, जहां पहुंचकर मुक्त आत्माएं ठहर जाती है। क्योंकि उसके आगे धर्मास्तिकाय नहीं होने से उनकी गति संभव नहीं है । अलोकाकाश निरवधिक है अर्थात् असीम है।
आकाशास्तिकाय की उपयोगिता
भगवान महावीर ने आकाशास्तिकाय द्रव्य के उपकार को उपदर्शित करते हुए कहा कि आकाश जीव और अजीव का भाजन है । यदि आकाश आधार के रूप में नहीं होता तो जीव और अजीव कहां रहते ? काल किसको अपना आधार बनाता ? पुद्गल अपना खेल कहां खेलता ? यह विश्व ही निराधार हो जाता 1 816
304
814 जैनधर्म और दर्शन
मुनिश्री प्रमाणसागर, पृ. 114
815
अ) धर्मादिकस्युं रे संयुत लोक छइ तास वियोग अलोक
ते निरवधि छाइ रे अवधि अभावनइ, वलगी लागइ रे फोक, द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/9
ब) द्रव्यसंग्रह, गा. 20
816 भगवतीसूत्र, - 13/4/58
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org