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________________ आकाशास्तिकाय द्रव्य की सिद्धि भगवतीसूत्र 17 में मद्दुक श्रमणोपासक ने धर्मादि अस्तिकायों के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए कहा कि हवा में गंध के पुद्गल, अरणी में निहित अग्नि आदि दृष्टि के विषय नहीं होने पर भी इनका नास्तिव सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि हवा, गंध आदि को हम अनुभव करते हैं। इसी प्रकार छद्मस्थ को दिखाई नहीं देने मात्र से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। कार्य के आधार पर कारण की सत्ता सिद्ध होती है। अतः अवगाहन कार्य में कारणभूत आकाशास्तिकाय की सत्ता है । आकाशास्तिकाय की सिद्धि युक्तिपूर्वक करते हुए पं. सुखलालजी ने लिखा है 818 – विश्व पांच अस्तिकाय स्वरूप है। इनकी कहीं न कहीं स्थिति अवश्य होती है। वह स्थिति क्षेत्र आकाश है। आकाश आधार है और अन्य द्रव्य आधेय है। आकाश अन्य द्रव्यों का आधार इसलिए है कि वह अन्य जीवादि द्रव्यों से महान है । आकाश का कोई अन्य आधार नहीं है। क्योंकि उससे बड़ा या उसके तुल्य परिमाण का अन्य कोई आधार तत्त्व नहीं है। - डॉ. सागरमल जैन ने परम्परागत लकड़ी - कील तथा दूध या जल से भरी ग्लास में शक्कर या नमक डालने के उदाहरण से आकाशद्रव्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है। 19 लकड़ी में कील ठोंकने पर वह उसमें समाहित हो जाती है। दूध या पानी की भरी ग्लास में शक्कर या नमक को डालने पर वह उसमें समाविष्ट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि वहां रिक्तस्थान या आकाश है। वैज्ञानिकों ने भी यही माना है कि प्रत्येक परमाणु में पर्याप्त रूप से रिक्तस्थान होता हैं अतः आकाश लोकव्यापी और अखण्ड द्रव्य है I उपाध्याय यशोविजयजी ने व्यावहारिक युक्ति से आकाश द्रव्य की सत्ता को सिद्ध करते हुए कहा है ‘यहां पक्षी हैं, वहां पक्षी नहीं है, ऐसा व्यवहार क्षेत्रभेद के 817 305 - 'भगवतीसूत्र, 18/7/142 818 तत्त्वार्थसूत्र - पं. सुखलालजी, पृ. 120 819 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा, .......डॉ. सागरमल जैन, पृ. 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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