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आधार पर ही होता है। यहाँ, वहाँ रूप क्षेत्रभेद का जो आधार है या इन क्षेत्रों में जो अन्वयरूप से अखण्ड रहता है वही आकाशद्रव्य है । आधारभूत आकाशद्रव्य के अभाव में इह = अस्मिन् (यहाँ) शब्द का अर्थ ही शंकास्पद हो जाता है। अतः पक्षी का आधारभूत एवं 'इह' शब्द का वाच्य द्रव्य ही आकाश है | 820
4. काल
महोपाध्याय यशोविजयजी ने 'काल' का विवेचन दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मन्तव्यों के मध्य समन्वय स्थापित करते हुए समीक्षात्मक रूप से किया है।
जैनदर्शन में काल को भी षड्द्रव्यों में परिगणित किया गया है । परन्तु काल के स्वरूप को लेकर प्रारम्भ से हीदोमतभेद रहे हैं
1. काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है ।
2. काल स्वतन्त्र द्रव्य है ।
डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है कि आवश्यकचूर्णि में काल के स्वरूप के संदर्भ में निम्न तीन मतों का उल्लेख मिलता है
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' इह पक्षी, नेह पक्षी इत्यादि व्यवहार ज यद्देशभेदं हुई,
तद्देशी अनुगत आकाश ज पर्यवसन होई
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1. कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर पर्याय रूप मानते हैं।
2. कुछ विचारक काल को गुण मानते हैं।
3. कुछ विद्वान काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हैं ।
श्वेताम्बर परम्परा में चूर्णिकाल तक अर्थात् ईसा की सातवीं शती तक काल सम्बन्धी उपरोक्त तीनों मत प्रचलित रहे और श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने-अपने मन्तव्य के अनुसार उक्त तीनों मतों में से किसी एक मत की पुष्टि की। जहाँ तक
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. द्रव्यगुणपर्यायनोरास गा. 10/8 का टब्बा
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