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दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, सभी आचार्यों ने एक मत से काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में ही प्रतिपादित किया।921
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' की दसवीं ढाल में ग्रन्थकार यशोविजयजी ने पहले श्वेताम्बर आचार्यों के मन्तव्यों की चर्चा प्रस्तुत की है। स्थानांगसूत्र, जीवाभिगमसूत्र आदि ग्रन्थों में तथा उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि प्रभृति आचार्यों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना है।
स्थानांगसूत्र22 में समय और आवलिका को जीवरूप और अजीवरूप-दोनों कहा गया है। वस्तुतः वह जीव और अजीव की पर्याय है, इसलिए उसे जीवरूप और अजीवरूप दोनों कहा गया है। जीवाजीवाभिगम:23 में भी जीव और अजीव को ही काल कहा है, क्योंकि काल उनकी पर्यायों से पृथक् नहीं है। इसी आगमसूत्र का अनुसरण करते हुए विशेषावश्यक भाष्य में द्रव्य की वर्तना (परिणमन) को द्रव्यकाल कहा गया है अर्थात् द्रव्य की अवस्थाएँ ही द्रव्यकाल है, क्योंकि परिणमन (उत्पाद–व्यय) से भिन्न द्रव्य नहीं है।924
इस प्रकार जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह ही काल है। अतः काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। जीव और अजीव द्रव्यों की वर्तना पर्याय ही काल है। किसी भी द्रव्य की किसी भी पर्याय के रूप में जो वर्तना है (पर्याय में रहना) वही काल है।925 जैसे- कोई जीव मनुष्य के रूप में जन्म लेकर 100 वर्ष तक जीता है। उस जीव का मनुष्य के रूप में या मनुष्य पर्याय में रहना ही उस जीव का काल है।826 मकान के बनने के बाद मकान के रूप में विद्यमान रहना ही उस मकान की काल
821 जैनदर्शन में द्रव्य,गुण और पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ.53 822 स्थानांगसूत्र, 2/387 823 जीवाजीवाभिगम, द्वितीय प्रतिपदि, 48 से 83 824 दव्वस्स वत्तणा जा स दव्वकालो तदेव वा दव्वं न हि वत्तणाविभिन्नं दव्वं जम्हा जओऽभिहिअं ...
विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2032 825 वर्तन लक्षण सर्व द्रव्यह तणो, पण्णव द्रव्य न काल ।
द्रव्य अनंतनी रे द्रव्य अभेदथी, उत्तराध्ययनइ रे भाल ।। ....... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.10/10 826 द्रव्यगुणपर्यायनोरास-भाग 2, - धीरजभाई डाह्यालाल महेता, पृ. 503
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