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निष्क्रिय, नित्य, अवस्थित और अरूपी है। 803 आकाशास्तिकाय उत्पाद–व्यय रूप से परिनमनशील होने पर भी गतिशून्य होने से निष्क्रिय है । यह अपने सामान्य - विशेष स्वरूप से च्युत नहीं होने से अर्थात् स्वस्वरूप से च्युत नहीं होने से नित्य है। जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म और काल इन द्रव्यों के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रहते हुए भी आकाशास्तिकाय उन द्रव्यों के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता है । अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। अतः अवस्थित है । वर्ण आदि नहीं होने से अमूर्त है।
पंचास्तिकाय में आकाश द्रव्य के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है - जो जीव, पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है, वह आकाशस्तिकाय है। 804 किन्तु संपूर्ण आकाश अन्य द्रव्यों से अवगहित नहीं है। अलोकाकाश में जीवादि द्रव्यों की अवस्थिति नहीं होने से वहां उनको अवकाश देने का प्रश्न ही नहीं उठता। तथापि अवगहित आकाश अनंत आकाश का ही एक भाग होने से आकाश द्रव्य को अवगाहन लक्षण वाला कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि805, राजवार्तिक", द्रव्यसंग्रह 07, नयचक्र प्रभृति ग्रन्थों में आकाश के आगम सम्मत स्वरूप को स्वीकार करते हुए अवगाहन लक्षण के आधार पर ही आकाशास्तिकाय को परिभाषित किया गया है।
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' तत्त्वार्थसूत्र, 5 / 3, 6
यशोविजयजी ने आकाशास्तिकाय द्रव्य पर विमर्श करते हुए कहा है जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पांचों द्रव्यों को सदा साधारण रूप से (पक्षपातरहित होकर) अवकाश देता है, वह आकाशास्तिकाय द्रव्य है । यह द्रव्य लोकालोक सर्वत्र अनुगत होकर रहता है। सर्व द्रव्यों को अपने में स्थान देने के
804 जीवा - पुग्गल - काया,
805 सर्वार्थसिद्धि, 5/18
806 राजवार्तिक, 5/1
807 द्रव्यसंग्रह, गा. 5 / 19
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'चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं
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पंचास्तिकाय, गा. 91
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नयचक्र, गा.97
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