________________
301
3. आकाशास्तिकाय -
___ ग्रन्थकार ने षड्द्रव्यों के विवेचन के क्रम में तीसरे स्थान पर आकाशास्तिकाय द्रव्य का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। आकाश से तात्पर्य आसमान से नहीं है, जो नीलवर्ण का दिखाई देता है। जो हमें आसमान के रूप में दिखाई देता है, वह वायुमंडल है तथा नीला-पीला रंग वायुमंडल में तैरने वाले उन सूक्ष्म अणुओं का है जो सूर्य की किरणों को प्राप्त करके उन रंगों में रंग जाते हैं। आकाश का अर्थ है रिक्त स्थान जिसे अंग्रेजी भाषा में space कहा जाता है। आकाश का कोई रूप, रंग
और आकार नहीं है। यह अमूर्त और सर्वव्यापक द्रव्य है जो जीव, पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों को स्थान (अवगाहन) देता है।800
आकाशास्तिकाय का लक्षण और स्वरूप -
भगवान महावीर ने आकाशास्तिकाय के स्वरूप का निदर्शन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से इस प्रकार किया है:01 - द्रव्यतः - आकाशास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से एक है। क्षेत्रतः - लोकालोकव्यापी है, इसलिए अनंतप्रदेशी है। कालतः - अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालवर्ती शाश्वत द्रव्य है इसलिए
ध्रुव, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावतः - अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है अर्थात् अमूर्त और अजीव द्रव्य है। गुणः - अवगाह लक्षण वाला है।
उत्तराध्ययन सूत्र में आकाश को जीव और अजीव का भाजन माना है।902 सर्वमान्य दार्शनिक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय के छह सूत्रों में आकाशास्तिकाय द्रव्य के स्वरूप को उपदर्शित करते हुए कहा है - आकाशास्तिकाय
800 लोकाशेऽवगाह: – तत्त्वार्थसूत्र, 5/12 801 भगवतीसूत्र, 2/10/127 802 उत्तराध्ययनसूत्र, 28/9
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org