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है। जितनी आवश्यकता धर्मद्रव्य की है, उतनी ही आवश्यकता अधर्मद्रव्य की है। धर्मद्रव्य के अभाव में गति नहीं होने से स्थिति स्वतः हो जाती है। अतः अधर्मास्तिकाय की आवश्यकता नहीं है, ऐसा तर्क युक्तिसंगत नहीं है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं – गति और स्थिति दोनों शीतलता-उष्णता, गुरूत्व-लघुत्व की तरह स्वतन्त्र पर्याय है। गति का अभाव स्थिति अथवा स्थिति का अभाव गति नहीं है। दोनों की भावात्मक पर्याय हैं। अतः गति और स्थिति पर्यायरूप कार्यभेद होने से अपेक्षा कारण रूप द्रव्य भी दो और स्वतन्त्र हैं।97
दूसरी युक्ति यह है कि अधर्मास्तिकाय को नहीं मानने पर अनादि अनंतकाल की स्थिति करने वाले जीव-पुद्गल द्रव्य की नियत स्थिति अलोक में होने का प्रसंग आ जायेगा। 98 क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में अलोक में गति भले न हो, परन्तु स्थिति सहायक द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहने से अलोक में जीव-पुदगल की नियत स्थिति होनी चाहिए। परन्तु शास्त्रों में अलोक में जीव-पुद्गल द्रव्य की नियत स्थिति की बात नहीं आती है। अतः अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अस्तित्व है और अलोक में इसके अभाव के कारण ही जीव-पुद्गल की स्थिति नहीं होती है।
अधर्मास्तिकाय का अपलाप करने पर धर्मास्तिकाय का भी अपलाप हो जायेगा।'99 क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में गति नहीं होने से स्थिति स्वतः सिद्ध हो जाती है तो अधर्मास्तिकाय के अभाव में स्थिति नहीं होने के कारण गति भी स्वतः सिद्ध हो जायेगी। फिर धर्मास्तिकाय को मानने की आवश्यकता भी कहाँ रहेगी?
797 गति-स्थिति स्वतंत्र पर्याय रूप छइं, जिम गुरूत्व ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/7 का टब्बा 798 जो थिति हेतु अधर्म न भाखिइ, तो नियतथिति कोई ठाणि।
गति विण होवइ रे पुद्गल जंतुनी, संभालो जिन वाणी। ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/7 799 धर्मास्तिकायभावं रूप कहतां-धर्मास्तिकायाभाव प्रयुक्तगत्यभावइं स्थितिभाव कही, अधर्मास्तिकाय अपलपिई
............ द्रव्यगुणपर्यानोरास, गा. 10/7 का टब्बा
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