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________________ 299 वैज्ञानिकों के अनुसार जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण आकाश में स्थित पुद्गलों को नियंत्रित करता है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गल की गति का नियमन करता है।95 अधर्मास्तिकाय की उपयोगिता - अधर्मास्तिकाय के उपकार को दर्शाते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि स्थिति के लिए कोई अपेक्षाकारण नहीं होता तो जीव खड़ा कैसे रहता ? सोता कैसे?, बैठता कैसे ? मन एकाग्र कैसे होता ? आँखों को मूंदता कैसे ? मौन कैसे रहता ? निस्पंदन कैसे होता ? जितने भी स्थिरभाव हैं, वे अधर्मास्तिकाय के कारण अधर्मास्किाय की सिद्धि - धर्म और अधर्म दोनों द्रव्य इन्द्रगम्य नहीं होने से इनकी सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा नहीं हो सकती है। आगम प्रमाण से ही इनकी सिद्धि हो सकती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने आगम पोषक युक्तियाँ देकर अधर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए प्रयत्न किया है। प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में कारणों का अपना महत्त्व रहता है। गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गलद्रव्य की गति और स्थिति संपूर्ण लोकाकाश में होती रहती है। गति-स्थिति में उपादानकारण तो स्वयं जीव और पुद्गल हैं, फिर भी इनको एक ऐसे निमित्तकारण की अपेक्षा रहती है जो गति-स्थिति में सहायक बन सके, संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त रहे और स्वयं गतिशून्य रहे। वे निमित्तकारण ही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य हैं। दोनों का कार्य भिन्न-भिन्न है। एक गति में सहायक है तो दूसरा स्थिति में सहायक तत्त्व ......... डॉ. सागरमल जैन, पृ. 46 795 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा ... 796 भगवती सूत्र – 13/4/25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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