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उनकी स्थिति में उदासीनतापूर्वक सहायतारूप अनुग्रह करती है। 791 वह किसी को ठहराती नहीं, मात्र उनके ठहरने में सहयोग करती है । उसी तरह अधर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गलों की स्थिति में उदासीन हेतु मात्र है। किसी को प्रेरित करके नहीं ठहराता है।
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आचार्य नेमीचन्द्र 2, आचार्य तुलसी आदि अनेक आचार्यों ने अधर्मास्तिकाय जन्य सहायता को समझाने के लिए तप्त पथिक के लिए छाया का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे - वृक्ष की छाया तप्त पथिक के विश्राम में सहायता करती है । किन्तु पथिक को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करती है । कोई पथिक अपनी इच्छा से ठहरता है, तो उसमें सहायता करती है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी स्वतः स्थितिशील द्रव्यों की स्थिति में सहायक मात्र है । उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अधर्मास्तिकाय के लक्षण को निदर्शित करते हुए उसे स्वतः स्थिति स्वभाववाले जीव - पुद्गलों की अवस्थिति में अपेक्षा कारण माना है। 794 अधर्मास्तिकाय अपेक्षा कारण होने पर भी अनिवार्य है। अन्यथा अधर्म द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गल सदाकाल गति ही करते रह जायेंगे। परन्तु वे द्रव्य जैसे गति करते हैं वैसे गति प्रयोजन के समाप्त होने पर स्थिति भी करते हैं। इस प्रकार स्वतः स्थिति रूप में परिणमित द्रव्यों की स्थिति में साधारण कारण के रूप में जो अनिवार्य हैं, वही अधर्मास्तिकाय नामक द्रव्य है ।
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जह हवदि धम्म- दव्वं तह तं जाणेह दव्व - महामक्खं । ठिदि-किरिया-जुताणं कारण-भूदं तू पुढवीव
792 द्रव्यसंग्रह, गा. 18
1793 जैन सिद्धान्त दीपिका
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794 स्थिति परिणामी जे पुद्गलजीवद्रव्य, तेहोनी स्थितिनो हेतु कहिइं- अपेक्षाकारण जे द्रव्य
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पंचास्तिकाय, गा. 86
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द्रव्यगुणपर्यानोरास, गा. 10 / 5 का टब्बा.
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