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________________ 297 जिस प्रकार गति में धर्मास्तिकाय कारण है, उसी प्रकार स्थिति में अधर्मास्तिकाय कारण है।86 जिस प्रकार धर्मास्तिकाय के बिना गति संभव नहीं है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के बिना स्थिति की भी संभावना नहीं हो सकती है। षड़दर्शन समुच्चय की टीका में भी अधर्मास्तिकाय के इसी लक्षण को महत्त्व दिया है। यहाँ द्रष्टव्य है अधर्मास्तिकाय उन द्रव्यों के स्थिति में ही सहयोग करता है जो गतिशील हैं। जो चलते-फिरते ठहरता है, उसे ही सहायता करता है। जो चलता ही नहीं है तो वह ठहरेगा कैसे ? जैसे आकाश। 88 आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है - न धर्मास्तिकाय गति करता है और न ही अधर्मास्तिकाय स्थिर करता है। जीव और पुद्गल अपने स्वभाव से गति एवं स्थिति करते हैं। ये दोनों द्रव्य मात्र उनके गति-स्थिति में उदासीन रूप से सहयोग करते हैं। 89 संक्षेप में धर्मास्तिकाय की तरह अधर्मास्तिकाय भी निष्क्रिय, नित्य, अवस्थित और अरूपी है। अधर्मास्तिकाय भी असंख्य प्रदेशी होने पर भी अखण्ड एक स्कन्ध के रूप में है। प्रदेशों की कल्पना वैचारिक स्तर पर ही हो सकती है। धर्मास्तिकाय के समान अधर्मास्तिकाय भी लोकव्यापी है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एक क्षेत्रावग्राही होने पर भी गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व आदि लक्षण से भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं। 90 अधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों की स्थिति में किस प्रकार सहायता करता है ? इसको प्रतिपादित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने अश्व और पृथ्वी का उदाहरण दिया है। जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं पूर्व से स्थिर रहती हुई तथा पर को स्थिति के प्रेरित नहीं करती हुई, अश्वादि की तरह स्वतः स्थिति के लिये तैयार द्रव्यों को 786 नियमसार, गा. 30 787 षडदर्शनसमुच्चय की टीका, 49/169 788 विज्जदि जैसिं गमणं ठाणं गण... पंचास्तिकाय, गा. 89 वही, गा. 88 789 ण य गच्छदि धम्मत्थी 790 धम्मा-धम्मा-गासा ....................... ....................... पंचास्तिकाय, गा. 96 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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