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के क्षेत्र में 'अधर्म' शब्द का प्रयोग आत्मविकास में अवरोधक तत्त्व के रूप में हुआ है, किन्तु जैन तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में 'अधर्म' शब्द एक विशेष पारिभाषिक शब्द है जो स्थितिसहायक द्रव्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है I
अधर्मास्तिकाय गतिपूर्वक स्थिति करनेवाले जीव- पुद्गल द्रव्यों की स्थिति में सहायक द्रव्य है।
अधर्मास्तिकाय का स्वरूप एवं लक्षण
प्रश्नोत्तर शैली में गुम्फित जैनागम भगवतीसूत्र 84 के अनुसार स्थिति सहायक अधर्मास्तिकाय का स्वरूप इस प्रकार है :
द्रव्यत :
क्षेत्रत :
कालतः
भावतः
गुणतः
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अधर्मास्तिकाय एक द्रव्य है 1
संपूर्ण लोकाकाश में अधर्मास्तिकाय व्याप्त है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में अधर्मास्तिकाय निहित है। इसके प्रदेशों की संख्या भी लोकाकाश के प्रदेशों के समान है, अर्थात् असंख्यात प्रदेशी है ।
अधर्मास्तिकाय भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा । यह त्रिकालवर्ती अनादि अनंत द्रव्य है। अतः ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य द्रव्य है ।
784 भगवतीसूत्र, 2/10/2
तत्वार्थसूत्र, 5/17
अधर्मास्तिकाय अरूपी द्रव्य है। यह वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित, स्पर्शरहित, अमूर्त सत्ता है । भारहीन अजीव द्रव्य है ।
तत्त्वार्थसूत्र में भी अधर्मास्तिकाय को गतिशील जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायता रूप उपकार करने वाले द्रव्य के रूप में उपदर्शित किया गया है ।
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अधर्मास्तिकाय जीव- पुद्गलों के ठहरने में उदासीनरूप से सहायता करता है।
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