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________________ 295 धर्मास्तिकाय की सिद्धि - उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय द्रव्य को अनुमान प्रमाण से सिद्ध किया है। सहज रूप से ऊर्ध्वगामी मुक्त जीव एक समय में लोक के अग्रभाग तक पहुंचकर सिद्धशिला पर ठहर जाते हैं। उसके आगे उनकी गति नहीं होती है, क्योंकि वहाँ उनके गति में सहायक बनने वाले तत्त्व का अभाव है। धर्मास्तिकाय की अवस्थिति लोकाकाश प्रमाण है। इसलिए मुक्तजीव लोक के अग्रभाग में ठहर जाते हैं। 82 यदि धर्मास्तिकाय नहीं होता तो एक समय में 7 रज्जुप्रमाण तीव्र गति करने वाले मुक्त जीव अनंत आकाश में परिभ्रमण करते ही रहेंगे। उनकी गति कभी विरमित नहीं हो पायेगी। पुनः जीव और पुद्गल भी स्वभाव से गतिशील होने से अनंताकाश में इधर से उधर गति करते हुए ही पाये जायेंगे जिससे संपूर्ण विश्व व्यवस्था ही भंग हो जाने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतः धर्मास्तिकाय नामक गति सहायक द्रव्य है जो लोकाकाश प्रमाण है और जीव और पुद्गल की गति को लोकाकाश तक सीमित रखता है। ___ अन्य भारतीय और पाश्चात्य दर्शनकारों ने गति को वास्तविक मानते हुए भी उसके लिए सहायक तत्त्व के रूप में 'धर्मद्रव्य' जैसे किसी द्रव्य की परिकल्पना नहीं की है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में गति सहायक एक ऐसे तत्त्व को स्वीकार किया है जो संपूर्ण जगत में व्याप्त, तरल और अत्यन्त सूक्ष्म है। उसे 'इत्थर' के नाम से जाना जाता है।83 इसका कार्य जैनदर्शन सम्मत धर्मद्रव्य से मिलता जुलता है। 2. अधर्मास्तिकाय - विश्वव्यवस्था के आधारभूत मौलिक द्रव्यों में अधर्मास्तिकाय दूसरा द्रव्य है। यहाँ 'अधर्म' शब्द का अर्थ पाप या अनैतिक कार्य नहीं है। यद्यपि जैन आचारमीमांसा 782 सहज उर्ध्वगतिगामी मुक्तनइं, विना धर्म प्रतिबंध, गगनिं अनंतइ रे कहिइ नवि टलइ, फिरवा रसनो रे धंध ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 10/6 783 जैनधर्म और दर्शन - डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ. 210 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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