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यशोविजयजी ने उनकी समीक्षा के रूप में कहा है -स्वभाव द्रव्य के गुण और पर्याय से भिन्न नहीं है। जैसे चेतनता जीव का स्वभाव है और वही चेतनता जीव का गुण भी है, क्योंकि जो सहभावी होता है वही गुण कहलाता है और जो स्वभावभूत स्वरूप है, वही सहभावी होता है। वस्तु का उपचार रहित जो सहज स्वभाव होता है वही द्रव्य के साथ सदा रहता है, जो सहभावी होता है, वही गुण है। अतः स्वभाव गुण से पृथक नहीं है। स्वभाव में होने वाली हानि-वृद्धि या रूपान्तर को ही पर्याय कहा जाता है। इसलिए पर्याय, द्रव्य और गुणों दोनों के आश्रित हैं जबकि गुण मात्र द्रव्य के ही आश्रित रहता है। इस दृष्टि से विचार करने पर स्वभाव गुण-पर्याय से भिन्न नहीं है। 17 इस प्रकार यशोविजयजी ने अपने इस ग्रन्थ में गुण और स्वभाव का अलग-अलग निर्देश करके भी उन्हें अभिन्न ही माना है और यही उनके चिन्तन की विशेषता है।
1177 अनुपचरित निज भाव जे रे, ते तो गुण कहवाय
इक द्रव्याश्रित गुण कहिया, उभयाश्रित पज्जायो रे ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/17
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