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और अशुद्ध दोनों स्वभाव को मिलाकर शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से विचार करने पर इन दोनों द्रव्य में विभावस्वभाव भी है। 174
शुद्धस्वभाव और अशुद्धस्वभाव -
जीव में ज्ञानादि गुणों का आविर्भाव क्षयोपशमादि भाव के कारण अंशतः या क्षायिकभाव के कारण पूर्णतः होना जीव का शुद्धस्वभाव है। इस शुद्ध स्वभाव को अपना विषय बनानेवाले शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से जीव में शुद्धस्वभाव है। इसी प्रकार काम, क्रोधादि औदायिक भाव जीव का अशुद्धस्वभाव है। अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव में अशुद्धस्वभाव पाया जाता है। पुद्गल द्रव्य में शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वर्णादि शुद्ध स्वभाव और अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अनुसार जीव के संयोग से शरीर आदि रूप अशुद्धस्वभाव भी पाया जाता है। 175
उपचरित स्वभाव -
जो स्वभाव द्रव्य का वास्तविक स्वभाव नहीं होने पर भी अन्यद्रव्य के संयोग से है,वह स्वभाव उस द्रव्य में प्रतिभासित होता है तो उस स्वभाव को उपचार से स्वीकार किया जाता है। जैसे मूर्तता स्वभाव जीव का वास्तविक स्वभाव नहीं होने पर भी शरीर आदि पुद्गल के संयोग से जीव में मूर्तता स्वभाव को माना गया है। उपचार करनेवाले असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से सभी द्रव्यों में उपचारस्वभाव है। 176
इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्य के सामान्य विशेष गुण तथा सामान्य विशेष स्वभाव को भिन्न-भिन्नरूप से विश्लेषित करने के पश्चात् उपाध्याय
1174 अ) शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिकेन विभाव स्वभावत्वम् ................. आलापपद्धति, सू. 173
ब) शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिकई रे, जाणि विभाव स्वभाव .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/15पूर्वार्ध 1175 अ) आलापपद्धति, सू. 174, 175
ब) शुद्धइं शुद्धस्वभाव छइ रे, अशुद्धइ अशुद्ध स्वभावो रे .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/15 का उत्तरार्ध 1176 अ) असद्भूत व्यवहारेणोपचरित स्वभावः
. आलापपद्धति, सू. 176 ब) असद्भूतव्यवहारथी रे, छइ उपचरित स्वभाव . .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/16
मावः ...........
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