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यास्यसि यातस्ते पिता' यह पुरूष या साधन व्याभिचार है।96 यथार्थ में ‘त्वम् एहि, त्वंमन्यसे यत् अहं रथेन यास्यामि त्वं नहि यास्यसिते पिता अगे यातः' ऐसा प्रयोग होना चाहिए। यह नय पाठं पठति; पाठं पठसि; पाठं पठामि- इन तीनों में पुरूष भेद के कारण वाच्यार्थ में भेद करता है। .
6. उपसर्गभेद :
उपसर्ग का अर्थ है उपग्रहण परा, प्र, अप, समादिशब्दनय उपसर्ग के प्रयोग के आधार पर वाच्यार्थ में भेद करता है। जैसे संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति में परस्मैपद और आत्मनेपद का प्रयोग उपग्रहण व्याभिचार है।397 संतिष्ठते, अवतिष्ठते में मूल धातु (स्था) एक होने पर भी 'सम' और 'अव' उपसर्ग के आधार पर वाच्यार्थ में भेद किया जाता है। इसी प्रकार प्रहार, उपहार, संहार, विहार, निहार, परिहार, आहार, अपहार, व्यवहार आदि के वाच्यार्थ में भी भेद है। इस प्रकार लिंग, संख्या, और साधन आदि के व्यभिचार का निराकरण करनेवाला शब्दनय है।398 इसी बात को नयचक्र में इस प्रकार समझाया गया है - शब्दनय एकार्थ भिन्न लिंगादि वाले शब्दों की प्रवृति को स्वीकार नहीं करता है।99 शब्दनय ऐसे शुद्ध शब्दों को ही स्वीकार करता है जो शुद्ध व्याकरण से प्रकृति, प्रत्यय के द्वारा सिद्ध हों।100 शब्दनय लिंग आदि से शब्दों के अर्थ में भेद करने पर भी अनेक पर्यायवाची शब्दों द्वारा
396 साधन व्यभिचारः एहि मन्ये रथेनयास्यसि ........
तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33/20 397 अ) संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार
वही, 1/33/20 ब) सन्तिष्ठते, अवतिष्ठते इत्यादावुपसर्गभेदेन .....
जैनतर्कभाषा, पृ.61 398 अ) लिंग, संख्यासाधनादिव्यभिचार निवृतिपरः शब्दनयः
सर्वार्थसिद्धि, 1/33 ब) सव्वेसि वत्थूणं संखालिंगादि बहुपयादेहिं .
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा.275 399 जो वट्टणं ण मण्णई एयत्थे भिन्नलिंगाइणं ...........
नयचक्र, गा. 212 400 शब्दात् व्याकरणात् प्रकृति प्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः .................. आलापपद्धति, सू. 200
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