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________________ 263 मात्र उत्पत्ति का ही व्यवहार करता है, परन्तु उत्पत्स्यमान और उत्पन्न होगी का व्यवहार नहीं करता है। यद्यपि सामान्य रूप से व्यवहारनय निकटवर्ती भूत-भावी पर्यायों को मानता है, किन्तु यहाँ व्यवहारनय एक समयवर्ती पर्यायमात्र को ग्रहण करने वाले सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय से प्रभावित होकर अर्थात् ऋजुसूत्र नयानुगृहीत होकर विवक्षित समय में वस्तु को 'उत्पद्यते' या 'नश्यति' ही मानता है।692 अभेदग्राही निश्चयनय के अनुसार पूर्वपर्याय का नाश और उत्तरपर्याय की उत्पत्ति दोनों एक साथ और एक ही समय में होता है तथा उत्पाद और नाश भिन्न-भिन्न न होकर रूपान्तर मात्र है जबकि व्यवहारनय पूर्वसमय में नाश और उत्तरसमय में उत्पाद को मानता है। जैसे बारहवें गुणस्थान में चरमसमय में ज्ञानावरणीयादि कर्मों का नाश होता है एवं तेहरवें गुणस्थान के प्रथमसमय में केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। महापट के फटने के पश्चात् ही खंडपट की उत्पत्ति होती है। वक्रता के नाश के बाद ही अंगुली में सरलता आती है। इस नय के मत में क्रियाकाल के सर्वसमयों में कार्य अनुत्पन्न ही रहता है। निष्ठाकाल में ही कार्य की उत्पत्ति होती है। उदाहरण के लिए - मृत्पिण्ड से घट का निर्माण करने में चार घंटे लगते हैं तो चार घंटे के चरम समय के पूर्व समय तक मृत्पिण्ड का नाश ही मानता है। चतुर्थघंटे के चरम समय में ही घटोत्पत्ति को मानता है। एकान्त भेदवादी नैयायिक आदि दर्शन क्रियाकाल और निष्ठाकाल को एकान्त रूप से भिन्न-भिन्न मानते हैं। स्थूलदृष्टि से देखने से व्यवहारनय को क्रियाकाल लम्बा दिखाई देता है और निष्ठाकाल अन्तिम एक समय में ही दिखाई देता है। जो वस्तु जिस समय जितनी प्रारम्भ होती है, वह वस्तु उस समय उतनी समाप्त भी होती है। जिस समय पट का नाश प्रारम्भ होता है उस समय पट का उतना नाश भी हो जाता है। जिस समय महापट को फाड़ने की क्रिया प्रारम्भ होती है, उसी समय उतने महापट को फाड़ने की क्रिया समाप्त भी होती है। इस प्रकार क्रियाकाल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानने पर क्रियाकाल के परिणामस्वरूप जो है, 692 ते प्रतिक्षणपर्याय-उत्पत्ति नाशवादी जे ऋजुसूत्रनय, तेणइ अनुगृहीत जे व्यवहारन..... .... वही, गा.9/11 का टब्बा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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