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प्रतिसमय घटद्रव्य पुद्गलों की परावृत्ति से अर्थात् उनका पुरण एवं गलन होने से बदलता रहता है। इस कारण से घट अपूर्व–अपूर्व अवस्था के रूप में उत्पन्न होता रहता है और पूर्व-पूर्व अवस्था के रूप में नष्ट होता रहता है। इस रूप में होने वाला उत्पाद और व्यय का आविर्भाव प्रत्येक समय में रहता है। इस प्रकार प्रत्येक समय में अनंत-अनंत उत्पाद-व्यय होते रहते हैं। भूत और भावी के उत्पाद व्यय तिरोभाव के रूप में और वर्तमान के उत्पाद-व्यय आविर्भाव के रूप में विद्यमान रहते
निश्चयनय और व्यवहारनय से उत्पाद और व्यय का स्वरूप -
'कयमाणे कडे' वचन के आधार पर निश्चयनय एक ही समय में वस्तु को उत्पन्न, उत्पत्स्यमान और उत्पद्यमान के रूप में स्वीकार करता है। जिस समय वस्तु उत्पन्न होती है, उस समय वस्तु कुछ अंश से बन जाने से ‘उत्पन्न', कुछ बनने वाली होने से उत्पत्स्यमान और उत्पत्तिप्रक्रिया चालू रहने से उत्पद्यमान है। इस प्रकार निश्चय नय एक ही समय में (उत्पद्यमान समय में) तीनों काल का अन्वय करता है। इसी प्रकार अभेदप्रधान दृष्टि के कारण नष्ट होती हुई एक ही वस्तु में विवक्षित समय में नश्यति, नष्टम् और नशिष्यति इस प्रकार अभेदप्रधान दृष्टि के कारण तीनों कालों का प्रयोग करता है।690
परन्तु व्यवहारनय भेदप्रधान दृष्टिवाला होने से ‘कडमेव कडम्' वचन के आधार पर कालभेद करके वस्तु के पूर्वसमय में 'उत्पत्स्यमान', वर्तमान समय में 'उत्पद्यमान'
और भावीसमय में 'उत्पन्न' होगी, ऐसे विभक्त स्वरूप को स्वीकार करता है।91 इसी प्रकार नष्ट होती हुई वस्तु को वर्तमानकालीन समय में 'नश्यति', पूर्वकालीन शेष समय में 'नश्ष्यिति' और उत्तरकालीन समयों में 'नष्टम्' मानता है। यह नय भेदग्राही होने से भिन्न-भिन्न समय में कालत्रय का व्यवहार करता है। उत्पद्यमान समय में
690 निश्चयनयथी 'कयमाणे कडे' एव वचन अनसरीनई उत्पद्यमानं उत्पन्नं इम कहिई............द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/11 691 पणि व्यवहारनयइं "उत्पद्यते, उत्पन्नम, उत्पत्स्यते, नश्यति, नष्टम्, नङक्ष्यति" एविभक्ति कालत्रयप्रयोग होइ
.... वही, गात्र 9/11 का टब्बा
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