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न्यायदर्शन के अनुसार द्रव्य उत्पत्ति के समय में निर्गुण होता है और बाद में समवाय सम्बन्ध से द्रव्य और गुण में सम्बन्ध स्थापित होता है। परन्तु यदि द्रव्य निर्गुण है तो गुण के सम्बन्ध से भी गुणवान नहीं बन सकता है। क्योंकि किसी भी पदार्थ में असत् शक्ति का उत्पादन नहीं होता है। यदि ऐसा होता है तो ज्ञान गुण के सम्बन्ध से घट भी चेतन हो जायेगा और यदि द्रव्य गुणवान है तो समवाय सम्बन्ध की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।1328 समवाय सम्बन्ध को मानने पर तो अनवस्था दोष का प्रसंग आता है।329 क्योंकि यह प्रश्न उभरना स्वाभाविक है कि यदि गुण द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता तो समवाय सम्बन्ध गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से रहता है ? इसलिए जैनदर्शन के अभिमत में गुण द्रव्य का सहभावी धर्म है। गुण से पृथक् द्रव्य नहीं होता है।
उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार द्रव्य और गुण में अभेद नहीं मानने पर तो कारण-कार्य सम्बन्ध ही घटित नहीं होगा। इसका कारण यह है कि सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति खरविषाण की तरह कदापि नहीं हो सकती है। 1330 द्रव्य कारण है और उससे प्रगट होने वाली पर्यायें कार्य हैं। जैसे कि मिट्टी-घट और तन्तु–पट इन दोनों उदाहरणों में मिट्टी और तन्तु द्रव्य और कारण हैं और उनसे उत्पन्न होने वाले घट और पट कार्य हैं। यदि मिट्टी और तन्तु में अभेद रूप से घट-पट विद्यमान नहीं है तो सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? इसलिए कारण (द्रव्य) में कार्य (पर्याय) प्रगट होने की शक्ति विद्यमान रहती है। अतः द्रव्य में गुण और पर्याय अभेदभाव से सत् हैं। द्रव्य में अपने अपने कार्य (पर्याय) प्रगट होने की शक्ति तिरोभाव से अवश्यमेव रहती है जो कालादि सामग्री के प्राप्त होने पर आविर्भूत होती
है।1331
1328 वही, गा. 48, 49
1329 अणवत्था समवाए किह एयत्तं पसाहेदि। -नयचक्र, गा. 47 का उत्तरार्ध
1330 जो अभेद नहीं एहनो जी, तो कारय किम होई ?
अछती वस्तु न नीपजइजी, शशविषाण परि जोई रे।। ......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/7 1331 द्रव्यरूप छती कार्यनीजी, तिरोभावनी रे शक्ति।
आविर्भावइ नीपजइजी, गुण पर्यायनी, व्यक्ति रे।। ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/8
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