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असत्कार्यवादी नैयायिकों के अनुसार द्रव्य-गुण-पर्याय में अभेद मानने पर तो कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं घटेगा। क्योंकि कारण सदा पूर्वसमयवर्ती और कार्य सदा पश्चात् समयवर्ती होता है। जहाँ पूर्वापर समयवर्तिता होती है, वहाँ ही कार्यकारणभाव होता है। इसलिए कार्य-कारण या द्रव्य और गुण–पर्याय में भेद मानना ही उपयुक्त है। कार्यकारण में भेद होने से ही कारणकाल में अर्थात् मिट्टी में कार्य अर्थात् घट असत् है और बाद में दंडादि सामग्री के प्राप्त होने पर ही घट की उत्पत्ति होती है। मृत्पिण्ड और कपाल अनुक्रम से घट की पूर्वावस्था और पश्चादवस्था है। जिस प्रकार पश्चात् अवस्था कपाल को देखकर अतीत विषयक असत् घट का स्मरणात्मक ज्ञान होता है उसी प्रकार पूर्वावस्था मिट्टी में से असत् घट की भी उत्पत्ति होती है।1332 ऐसी नैयायिकों की मान्यता है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने नैयायिकों की उपरोक्त मान्यता को मिथ्या ठहराया है।1333 क्योंकि कपाल में अतीतकालीन घट सर्वथा असत् नहीं है। यदि कपाल में घट सर्वथा असत् है और असत् वस्तु का ज्ञान होता है तो कपाल को देखकर घट का ही ज्ञान क्यों होता है ? पट, गाय, भैंस आदि पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं होता है। अतः द्रव्यार्थिकनय से कपाल में घट सत् होने से उसका स्मरणात्मक ज्ञान होता है और इसी प्रकार पूर्वावस्था मृत्पिण्ड में भी द्रव्यार्थिक नय से घट सत् होने से ही उसकी उत्पत्ति होती है। परन्तु मृत्पिण्डकाल में पर्यायार्थिकनय से घट असत् होने से सामग्रियों का योग प्राप्त होने पर उत्पन्न होता है। संक्षप में मृत्पिण्डकाल और कपालकाल में पर्यायार्थिकनय से घट असत् होने पर भी द्रव्यार्थिकनय से दोनों ही अवस्था में सत् है।1334 इस प्रकार मिट्टी में घट सत्-असत् रूप उभयात्मक है। सर्वथा असत् वस्तु का बोध और उत्पत्ति दोनों नहीं होने से कार्यकारण भाव में
1332 नइयायिक भाषइ इस्युं जी, "जिम अछतार्नु रे ज्ञान।
विषय अतातनुजा, तिम कारय सही नाण रे।। ................ वही, गा. 3/9 1333 अछतानी ज्ञप्तिनी परि अछतानी उत्पत्ति होइ" इम कहिउं, ते मत मिथ्या, - वही. गा. 3/10 का टब्बा 1334 पर्यायारथ ते नहीं जी, द्रव्यारथ छइ नित्य रे - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 3/10 का उत्तरार्ध
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