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अविभक्त प्रदेशी हैं। 1323 गुण और गुणी का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। जो प्रदेश गुणी वस्त्र के हैं, वे ही शुक्लादि गुणों के प्रदेश हैं। जो शुक्लादि गुण के प्रदेश हैं, वे ही गुणी वस्त्र के प्रदेश हैं। इस प्रकार उनमें प्रदेश भेद नहीं होने से अभिन्नता है। किन्तु गुण और गुणी में नामभेद, लक्षणभेद, संख्याभेद भी पाया जाता है। 1324 यहाँ दृष्टव्य है कि संज्ञा, संख्या की दृष्टि से द्रव्य और गुण में भेद होने पर भी वस्तुरूप से भेद नहीं है। वस्तुरूप से भेद और वस्तुरूप से अभेद को पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने दो उदाहरणों से समझाया है।1325 – प्रथम धन के योग से धनी व्यवहार होता है। यहाँ धन और धनी पुरूष के अस्तित्व आदि भिन्न-भिन्न हैं। यहाँ वस्तु रूप से भेद है। दूसरा ज्ञान के योग से ज्ञानी व्यवहार होता है। यहाँ ज्ञान और ज्ञानी का अस्तित्व अलग-अलग नहीं है। यदि दोनों को सर्वथा भिन्न मान लने पर तो दोनों ही अचेतन अवस्था को प्राप्त हो जायेंगें। ज्ञान और ज्ञानी वस्तु रूप से भेद नहीं है। ज्ञानी के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना ज्ञानी दोनों ही नहीं हो सकते हैं। इसलिए द्रव्य और गुण में अभेद भी है।
पुनः जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मान लेने पर या तो द्रव्य की अनंतता होगी या द्रव्य का अभाव होगा।1326 गुण नियम से किसी के आश्रय से रहते हैं और वे जिसके आश्रय से रहते हैं वह द्रव्य है। यदि गुण और द्रव्य भिन्न है तो गुण अन्य किस के आश्रय से रहेंगे और वे जिसके आश्रित रहेगें वही द्रव्य है। इस प्रकार द्रव्य की अनंतता का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। पुनः गुण को उसके आश्रयभूत द्रव्य से भिन्न मानने पर गुण निराधार हो जायेगें और गुणरहित द्रव्य निःस्वरूप हो जायेगें।1327 इसलिए जैनदर्शन द्रव्य और गुण में कथंचित् अभेद को भी मानता है।
1323 अविभत्त-मणण्णत्तं दवं गुणाणं.
पंचास्तिकाय, गा. 45 1324 संज्ञा संख्या लक्षणयी पणि भेद
द्रव्यगणपर्यायनोरास, गा. 2/16 1325 नयचक्र का विवेचन - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 25 1326 णिच्चं गुण-गुणिभेये दव्वाभावं अणंतियं अहवा, - नयचक्र, गा. 47 1327 पंचास्तिकाय, गा. 44, 45
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