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आचार्य पूज्यपाद ने जिस ज्ञान रूप में आत्मा परिणत होती है, उसी रूप में आत्मा का निश्चय करनेवाले नय को भी एवंभूतनय कहा है। जैसे इन्द्ररूप में परिणत आत्मा इन्द्र है। अग्निरूप में परिणत आत्मा अग्नि है।433
यशोविजयजी के अनुसार एवंभूतनय क्रिया परिणत अर्थ को अर्थ के रूप में अंगीकार करता है।434 जिस शब्द का जो क्रियारूप वाच्यार्थ है, उस क्रियारूप में परिणित पदार्थ को ही उस शब्द का वाच्यार्थ माननेवाला अभिप्राय एवंभूतनय है।
कोई भी सार्थक शब्द किसी न किसी क्रिया को ध्वनित अवश्य करता है। पदार्थ का अपने वाचक शब्द के द्वारा ध्वनित क्रिया के रूप में परिणत होने पर ही एवंभूतनय उस शब्द का जो वाच्यार्थ है उसे ही उस पदार्थ अर्थ स्वीकार करता है। अन्यथा नहीं। जैसे 'राजा' शब्द है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जो छत्र, चामर आदि से शोभता है, वह राजा है। एवंभूतनय के मन्तव्यानुसार जब राजा सभा में बैठा हुआ छत्र, चामर आदि से युक्त हो, उसी समय वह राजा है। स्नानादि करते समय राजा नहीं है।435 क्योंकि छत्र, चामर आदि के अभाव में भी किसी को राजा मान लिया जाये तो किसी सामान्य व्यक्ति को भी 'राजा' कहने की आपत्ति आ सकती है। अतः यह निश्चित है कि क्रिया परिणत काल में ही पदार्थ अपने शब्द का वाच्यार्थ होता है अन्य समय में कदापि नहीं।
433 येनात्मा येन ज्ञानेन भतः परिणतः तेनेवाध्यवसाययतोति
सर्वार्थसिद्धि, 1/33 434 क्रिया परिणत अर्थ मानइ सर्व एवंभूत रे ............................ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/15 433 जिम राजइ - छत्रचामरादि कई शोमइं ते राजा ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/15 का टब्बा
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