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________________ 176 अनुयोगद्वार 28 और आवश्यकनियुक्ति 29 में व्यंजित-अर्थ को विशेष रूप से प्रतिष्ठित करनेवाले नय को एवंभूतनय के नाम से अभिहित किया गया है। जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाए, उसे व्यंजन कहते हैं। वह व्यंजन जिस अभिधेय वस्तु को बतलाता है, उसे अर्थ कहते हैं। शब्दार्थ को तदुभय कहते हैं। अतः जो शब्द अर्थ को विशेषित करता है, वही एवंभूतनय है।430 प्रस्तुत नय व्यंजन (शब्द) और अभिधेय (अर्थ) का वास्तविक रूप से कथन करता है। इस शब्द का यह वाच्यार्थ है और इस वाच्यार्थ का प्रतिपादक यह शब्द है। इस प्रकार वाचक तथा वाच्य के सम्बन्ध की कसौटी पर खरी उतरने वाली वस्तु को ग्रहण करना ही एवंभूतनय का मुख्य ध्येय है। किसी व्यक्ति के लिए राजा या नृप शब्द का प्रयोग करना तभी ठीक है जब उसमें उस शब्द की व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित हो रहा हो।31 राजा जब राजदण्ड को धारण करता है, उसी समय वह 'राजा' होता है और जब वह प्रजा का पालन करता है उस समय नृप होता है। जब अध्यापक पढ़ा रहा हो, तभी उसे अध्यापक कहा जा सकता है। जब रसोईया, रसोई बनाता हो तभी वह रसोईया कहा जा सकता है। इस प्रकार एवंभूतनय संपूर्ण गुणों से युक्त वस्तु को ही उस शब्द से वाच्य वस्तु मानता है। व्यक्ति मन, वचन और काया से जो-जो क्रिया करता है, उस-उस नाम से युक्त होता है। यही एवंभूतनय का अभिप्राय है।432 428 वंजन-अत्थ-तदुभयं-एवंभूओ विसेसेइ ................ अनुयोगद्वार, गा. 139 आवश्यकनियुक्ति, गा. 471 तत्त्वार्थभाष्य, 1/34 पर भाष्य विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2252 429 अ) वंजन-अत्थ-तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ ब) व्यंजनार्थयोरेवम्भूत इति स) वंजनमत्थेणत्थं च वंजणेणोभयं विसेसइ ............ ................... 43° नयवाद, – मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 163 431 तत्त्वार्थसूत्र – पं. सुखलाल जी, पृ. 44 432 जं न करेइ कम्मं देही मणपयणकायचेट्टादो नयचक्र, गा. 215 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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