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परिवर्तनों के परिणामस्वरूप व्यक्ति बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होता है। आगम में इन अवस्था विशेष को ही पर्याय कहा है। जबकि दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिक्षण होने वाले शारीरिक आदि परिवर्तन को पर्याय कहा है। संक्षेप में दार्शनिकों ने जिस दीर्घकालवर्ती पर्याय को व्यंजनपर्याय कहा है, उसे ही आगम में पर्याय कहा गया है। पर्याय की आगमिक और दार्शनिक परिभाषा का यही अन्तर है।
पर्याय की अवधारणा की आवश्यकता -
___ जैनदर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु नित्य भी है, अनित्य भी है, एक भी है, अनेक भी है, सत् भी है और असत् भी है।195 वस्तु के इस अनेकान्तिक स्वरूप की व्याख्या पर्याय की अवधारणा पर ही हो सकती है। वस्तु के दो पक्ष होते हैं, एक ध्रुवपक्ष जो प्रत्येक दशा में ज्यों का त्यों रहता है तथा दूसरा परिणमनशील पक्ष जो प्रत्येक क्षण अवस्थान्तर को प्राप्त होता रहता है। उदाहरणार्थ मिट्टी का घट, दीपक, सिकोरा आदि विभिन्न रूपों में रूपान्तरण होने पर भी मिट्टीपना वही का वही रहता है। दूसरे शब्दों में मिट्टी विभिन्न रूपों में बदलकर भी वही रहती है। वस्तु के इस ध्रुवपक्ष को द्रव्य और परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है। द्रव्य त्रिकाल में ध्रुव अर्थात् एकरूप होता है। जबकि पर्याय प्रतिक्षण बदलती रहती है। पूर्व पर्याय का नाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद सतत् चलता रहता है। यही कारण है कि वस्तु द्रव्य के रूप में नित्य, एक और सत् होने पर भी पर्याय के रूप में अनेक, अनित्य और असत् है। द्रव्य और पर्याय का सम्मिलित रूप ही वस्तु का समग्र स्वरूप है। अतः वस्तु नित्यानित्य, एकानेक और सतासत् है।
सत् का उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक लक्षण भी पर्याय की अवधारणा पर ही घटित हो सकती है। यदि द्रव्य का ही उत्पाद, द्रव्य का ही व्यय और द्रव्य का ही ध्रौव्य
1195 यत्र यदेव तत्त्देवातत
समयसार, गा. 247 की टीका
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