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कभी विच्छेद नहीं होता है। स्वर्ण के पीतादि गुणों का तथा जीव के ज्ञानादि गुणों का कभी विच्छेद नहीं होता है। पर्याय, द्रव्य के परिवर्तनशील अर्थात् उत्पाद-वयय पक्ष को बनाये रखते हैं । सुवर्ण के कंकण, कुंडल आदि पर्यायें बनती और मिटती रहती हैं। जीव भी कभी मनुष्य के रूप में तो कभी देवादि के रूप में परिवर्तित होता रहता है। पर्यायों या अवस्थाओं का ही उत्पाद और विनाश चलता रहता है। अतः हम कह सकते हैं कि गुण, द्रव्य की नित्यता की और पर्याय अनित्यता की सूचक है । एतदर्थ गुण और पर्याय या नित्यपक्ष और अनित्यपक्ष या अपरिवर्तनशीलपक्ष और परिवर्तनशीलपक्ष या ध्रौव्य और उत्पाद - व्यय की एकता में ही द्रव्य की सत्ता है । दूसरे शब्दों में द्रव्य नित्यानित्यात्मक, परिवर्तनाअपरिवर्तनशीलात्मक, गुणपर्यायात्मक और उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक है ।
उत्पाद आदि त्रिलक्षणात्मक द्रव्य का स्वरूप :
उपाध्याय यशोविजयजी 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' के नौंवी ढाल में द्रव्य के स्वरूप का विस्तार से विश्लेषण किया है। विश्व का एकैक पदार्थ (द्रव्य) उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य रूप तीन लक्षणों से युक्त है । 46 समस्त द्रव्य चाहे वे जीव, परमाणु जैसे सूक्ष्म हों अथवा घट-पट जैसे स्थूल हों, उत्पादि तीन लक्षणों से सहित होते हैं। 647 संसार में विद्यमान कोई भी द्रव्य इन तीन लक्षणों से रहित नहीं हो सकता है। सभी पदार्थ पूर्व अवस्थाओं से नष्ट होते रहते हैं और नवीन अवस्थाओं के रूप में उत्पन्न होते रहते हैं। पर्यायों के रूप में उत्पन्न और नष्ट होने पर भी द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव रहते हैं। उदाहरणार्थ जीवद्रव्य देव, नरक, तीर्यंच और मनुष्य के रूप में जन्म-मरण करने पर एक भव (पूर्वभव) के रूप में व्यय को प्राप्त होता है तो दूसरे भव के रूप में उत्पाद को प्राप्त होता है और जीव के रूप में सदा ध्रुव रहता है। एक भव में भी बालावस्था के रूप में नष्ट होता है तो युवावस्था के रूप में उत्पन्न होता है । परन्तु
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एक अरथ तिहुं लक्षण, जिम सहित कहइ जिनराज ।
एकज अर्थ
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• जीव पुद्गलादिक-घटपटादिक जिस 3 लक्षणों
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/1
वही, टब्बा, गा. 9/1
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