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देवादत्तादि के रूप में सदा ध्रुव रहता है। सुवर्ण आदि पुद्गलद्रव्य घटादि के रूप में नष्ट होता है, मुकुट आदि के रूप में उत्पन्न होता है तो सुवर्ण के रूप में ध्रुव रहता है। घट आदि पदार्थ भी घट के रूप में व्यय, कपाल के रूप में उत्पाद और मिट्टी के रूप में स्थिर रहता है। इस प्रकार उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य से युक्त द्रव्य ही सत् है।
अनंत जिनेश्वर भगवंतों ने केवल ज्ञान के प्रकाश में समस्त लोक का अवलोकन करके पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया है। संसार का प्रत्येक पदार्थ त्रिपदीमय है। ‘उत्पन्ने इ वा' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ नवीन-नवीन अवस्थाओं के रूप में उत्पन्न होता है, 'विगमे इ वा' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ पूर्व–पूर्व अवस्थाओं के रूप में नष्ट होता है, 'ध्रुवे इ वा' अर्थात् द्रव्य के रूप में अपने मूल स्वभाव के रूप में ध्रुव रहता है। यह त्रिपदी सर्व पदार्थों में व्याप्त है।648 सर्वकालिक और सार्वभौमिक समस्त पदार्थ उत्पादादि त्रिपदी से युक्त हैं।
जैनदर्शन प्रत्येक पदार्थ को नित्यानित्य अथवा परिणामी नित्य मानता है। परन्तु नैयायिक आदि कुछ दार्शनिकों ने संसार के कुछ पदार्थों को एकान्त नित्य और कुछ पदार्थों को एकान्त अनित्य माना है। घट-पट आदि स्थूल पदार्थों को अनित्य तथा जीव, परमाणु, आकाशादि सूक्ष्म पदार्थों को नित्य पदार्थों के रूप में व्याख्यायित किया है। परन्तु परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर दीपक से लेकर आकाश तक के समस्त पदार्थ उत्पादादि तीनों लक्षणों से युक्त हैं। कोई भी पदार्थ स्याद्वाद की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है।649 घट के फूटने पर भी घट के रूप में व्यय, कपाल के रूप में उत्पाद और मिट्टी के रूप में ध्रुवता तो रहती है। अतः घट को एकान्त रूप से अनित्य नहीं कहा जा सकता है। समस्त पदार्थ नित्यानित्य रूप (परिणामीनित्य) हैं, अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक हैं।
लोक में अनन्तानन्त पदार्थ हैं। इन पदार्थों को द्रव्य भी कहते हैं। द्रव्य मुख्यतः जीव और अजीव रूप से दो हैं और इनके उत्तर भेद छह हैं- धर्मास्तिकाय,
648 ए त्रिपदीनइं सर्व अर्थ व्यापकपणुं धारणुं 649 आदिपमाव्योम समस्वभावं
............ वही, टब्बा, गा. 9/1 .. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 5
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