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कहा - वह न भारी है, न ही हलका है, न हलकाभारी है। वह अगुरूलघु अर्थात् भारहीन है। 65
तिल में तेल की तरह संपूर्ण लोकाश में व्याप्त रहने के कारण धर्मास्तिकाय लोकव्यापी है। 66 अनंत आकाश के जितने भाग में धर्मद्रव्य अवस्थित है, वही भाग लोकाकाश कहलाता है।
जीवादि की तरह धर्मद्रव्य भिन्न-भिन्न रूप से न होकर अखण्ड एक स्कन्धरूप है। इसके असंख्यात प्रदेश स्कन्ध से अलग नहीं हो सकते हैं। अतः अयुत सिद्ध प्रदेशी होने के कारण अखण्ड है। 67
इसका प्रसार क्षेत्र संपूर्ण लोकाश होने से विशाल है। धर्मास्तिकाय निश्चयनय की दृष्टि से एक प्रदेशी है। क्योंकि यह एक, अखण्ड और लोकव्यापी द्रव्य है। केवल क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्य प्रदेशों की कल्पना बौद्धिक स्तर पर ही की जा सकती है। अतः व्यवहारनय की दृष्टि से असंख्यात् प्रदेशी है।68
गति में सहायता देने रूप अपने स्वभाव से च्युत नहीं होने के कारण नित्य है। क्योंकि नित्य का अर्थ है, तद्भावाव्यय । 69
धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेशों में एक भी हानि-वृद्धि नहीं होती है। अनादिकाल से जितने प्रदेश हैं, उतने ही रहते हैं। हमेशा असंख्यात प्रदेशी ही रहता है। इसलिए अवस्थित है।70
धर्मास्तिकाय गति उपग्राहक द्रव्य होते हुए भी स्वयं निष्क्रिय है।1 गतिशून्य है। स्वयं गतिशील जीव–पुद्गल द्रव्यों की गति में मात्र उदासीन रूप से सहायक है
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तत्त्वार्थसार, 3/23
765 भगवतीसूत्र, - 1/9/401 766 लोकाकाशे समस्तेऽपि धर्माधर्मस्तिकाययोः ।
तिलेषु तैलवत् प्राहुरवगाहं महर्षयः ।। 767 पंचास्तिकाय, टी. 83 768 वही, 5/3 769 तत्त्वार्थसूत्र, 5/3 770 वही 771 तत्वार्थसूत्र, 5/6
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