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किन्तु प्रेरक या निमित्तकारण नहीं है। निष्क्रिय का अर्थ कदापि यह नहीं है कि धर्मास्तिकाय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से रहित है। अन्यथा उत्पाद-व्यय से शून्य होने पर धर्मास्तिकाय का द्रव्य के रूप में अस्तित्व ही नहीं रहेगा। धर्मास्तिकाय में भी प्रतिक्षण उत्पाद–व्यय अवश्य होता है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे उत्पाद–व्यय स्वनिमित्तक न होकर परद्रव्याश्रित उत्पाद-व्यय हैं।72 इस बात की चर्चा हमने पहले विस्तार से की है।
धर्मास्तिकाय स्वयं गतिशून्य है और किसी को गति के लिए प्रेरित भी नहीं करता है। किन्तु जो जीव-पुद्गल आदि स्वयं गति करते हैं, उनको गति माध्यम बनकर सहारा देता है। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि धर्मद्रव्य न तो स्वयं चलता है और न ही किसी को प्रेरणा करके चलाता है, अपितु गतिशीलद्रव्यों की गति में उदासीन रूप से सहयोग करता है। धर्मास्तिकाय के गति सहायकता स्वरूप को समझाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने जल व मत्स्य का उदाहरण दिया है।73 मच्छलियों की गति में जैसे जल अनुग्रहशील है, उसी प्रकार जीव-पुद्गलों की गति में धर्मद्रव्य सहायक है। जल स्वयं स्थिर रहकर गतिशील मत्स्यों के लिए उनके तैरने में सहायक बनता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वयं गतिरहित होकर, गतिशील द्रव्यों को उनके गति में सहयोग देता है।
आचार्य नेमिचन्द्र,74 अमृतचन्द्र, आचार्य तुलसी प्रभृति की तरह उपाध्याय यशोविजयजी ने भी गति उपकारक द्रव्य की व्याख्या करते हुए सलिल–झष उदाहरण ही प्रस्तुत किया है।" गतिपरिणामी जीव और पुद्गल लोकाकाश स्वरूप
772 सर्वार्थसिद्धि - 5/7/539 773 उदयं जह मच्छाणं गमणा-णुग्गह करं हवदि लोए । तह जीव-पुग्गलाणं धम्म दव्वं वियाणाहि।।
पंचास्तिकाय, गा. 85 774 द्रव्यसंग्रह - गा. 17 775 तत्त्वार्थसार - 7/33 776 जैन सिद्धान्त दीपिका - 1/32 777 गति परिणामी रे पदगल जीवनइ, झषनइ जल जिम होई
तास अपेक्षा रे कारण लोकमां, धरमद्रव्य गइ रे सोइ ...... ........... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, 10/4
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