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आकाशखण्ड में स्वतः गमनागमन करते हैं। ऐसे गमनागमन स्वभाववाले जीव और पुद्गल की गति में जो कारणभूत द्रव्य है, उसे यशोविजयजी ने धर्मास्तिकाय के रूप में अभिव्यंजित किया है। उन्होने उस कारण को अपेक्षाकारण कहा है जो अधिकरणस्वरूप और उदासीन प्रकृतिवाला होता है। इसका अर्थ यह है कि जो कारण, कर्ता को कार्य के लिए प्रेरित तो नहीं करता है। परन्तु जब भी वह कार्य किया जाता है, उस समय सहायता करने के लिए तैयार रहता है, वह अपेक्षा कारण है। मत्स्य में स्वयं तैरने की शक्ति होते हुए भी तालाब आदि में सलिल के सूख जाने पर मत्स्य तैर नहीं सकती है अर्थात् सलिल उसके तैरने में सहायक बनता है। जिस समय मछली तैरना चाहती है, उस समय जल उसके तैरने में सहायता करता है। न तैरना चाहे तो पानी उसके साथ बलप्रयोग या प्रेरणा नहीं करता है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय भी गतिशील द्रव्यों के गति करने पर सहायता करता है। परन्तु उन्हें गति के लिए प्रेरित नहीं करता है।
धर्मास्तिकाय को गति सहायक के रूप में विवेचित करने के लिए अंधा और यष्टि तथा रेल एवं पटरी का उदाहरण भी आधुनिक जैन दार्शनिकों ने प्रस्तुत किया है। रेल और पटरी के उदाहरण से धर्मास्तिकाय की गति सहायकता का सरलता से बोध हो जाता है। जहाँ पटरी है, रेल वहीं चलती है। बिना पटरी के रेल की गति अवरूद्ध हो जाती है। वैसे ही धर्मद्रव्य के बिना जीव-पुद्गल की गति अलोक में रूक जाती है। डॉ. सागरमल जैन ने विद्युतधारा और तार का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। जैसे विद्युतधारा को प्रवाहित होने में तार सहायक बनता है, वैसे ही धर्मद्रव्य गतिशील द्रव्यों की गति में सहायक बनता है।79
778 अधिकरण रूप, उदासीनकारण, जिम गमनागमनादि क्रिया परिणत झष क मत्स्य ............ वही, टब्बा 779 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा – डॉ. सागरमल जैन, पृ. 45
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