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नीतिशास्त्र में स्वभाव या कर्तव्य के वाचक अर्थ में, साधना और उपासना के विशेष प्रकार के रूप में 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया है, फिर भी जैन तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में 'धर्म' शब्द का प्रयोग विश्वव्यवस्था के मौलिक तत्त्व के रूप में हुआ है। इसे जीव और पुद्गल की गति में सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रदेश का संघात या प्रचय होने से उसे अस्तिकाय कहा जाता है I
लक्षण और स्वरूप
भगवतीसूत्र तथा स्थानांगसूत्र में धर्मास्तिकाय को द्रव्य की अपेक्षा से एक है, क्षेत्र की अपेक्षा से लोकव्यापी है, काल की अपेक्षा से अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतः यह ध्रुव, निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है। भाव की अपेक्षा से स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द से रहित है । गुण की अपेक्षा सें गमन गुण है | 761
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तत्त्वार्थसूत्रकार ने धर्मास्तिकाय को जीव - पुद्गल की गति में उपकारी माना है762 अर्थात् इसे जीव - पुद्गल के गमन में अपेक्षित निमित्त कारण माना है। स्वयं क्रिया करने वाले जीव और पुद्गल की क्रिया (गति) में जो सहायता करता है, वह धर्मास्तिकाय है | 763
पंचास्तिकाय में धर्मद्रव्य को अस्पर्श, अरस, अगंध, अवर्ण, अशब्द, लोकव्यापक, अखण्ड, विशाल और असंख्य प्रदेशी माना गया है। 764
धर्मास्तिकाय स्पर्श आदि गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त हैं। अमूर्त या अरूपी सत्ता होने से अगुरुलघु भी है। धर्मास्तिकाय के विषय में भगवान महावीर ने
761 भगवतीसूत्र - 2/10/1 एवं ठाणांग 5 / 170
762 तत्त्वार्थसूत्र, - 5/17
1763 तत्त्वार्थराजवर्तिक 5/1/19
764 पंचास्तिकाय, गा. 83
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