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सकता है।11 इस प्रकार जहाँ शब्दनय इन्द्र, पुरन्दर और शक्र में एकार्थ स्वीकार करता है वहाँ समभिरूढ़ नय उनके पृथक्-पृथक् अर्थ को महत्त्व देता है।
नन्दीसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र13 में मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को मतिज्ञान के पर्यायवाचक शब्द माने गये हैं। शब्दनय के अनुसार पूर्वोक्त मति आदि शब्द एक लिंगी होने से एकार्थ के बोधक हो सकते हैं परन्तु समभिरूढ़ नय संज्ञा भेद से मति आदि शब्दों के अर्थभेद को मान्यता देता है। इस तरह एक वस्तु के वाच्य शब्द का अन्य वस्तु के वाच्यार्थ के रूप में संक्रमण शक्य नहीं हो सकता है। यदि एक वस्तु में अन्य शब्द का आरोप किया जाए तो वह अवस्तु रूप हो जाती है।414
कहने वाले के शब्द का जो अर्थ और अभिप्राय होता है, उसे 'वस्तु' माना जाता है और अन्य को 'अवस्तु'। जैसे धर्म शब्द का वाच्यार्थ धर्मास्तिकाय, श्रुतधर्म और चारित्रधर्म आदि हैं। समभिरूढ़नय बोलनेवाले के अभिप्राय को मुख्यता देकर प्रसंग अनुसार जो अर्थ उचित लगता है, केवल उसे ही धर्म शब्द का अर्थ मानता
है।415
सर्वार्थसिद्धि में समभिरूढ़नय की व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई है। जो शब्द के विभिन्न वाच्यार्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ को प्रधानता से अंगीकार करता है, वह समभिरूढ़ नय कहलाता है।16 'गौ' शब्द के वाणी, पृथ्वी आदि 11 अर्थ होते हैं। परन्तु समभिरूढ़नय सास्नादिवाली 'गाय' इस एक अर्थ में ही 'गौ' शब्द को रूढ़
411 अ) जं जं सण्णं भासइ तं तं ......
समापन
सत्यापित ..............
412 ईहा अपोह वीमांसा मग्गणा 413 मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता ... 414 अ) वत्थुओ संकमणं होई अवत्थु णये समभिरूढ़े
ब) वत्थुओ संकमणं होति अवत्थु नए समभिरूढ़े ... 415 नयवाद, -मुनि फूलचन्द्र 'श्रमण', पृ. 146 416 नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढ़
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विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2236 ............ स्याद्वाद मंजरी, श्लोक संग्रह, पृ. 247
नंदीसूत्र, सू 79 तत्त्वार्थसूत्र, 1/13 अनुयोगद्वार गा. 139 आवश्यकनिर्यक्ति या
युक्ति , गा. 471
सर्वार्थसिद्धि, 1/33
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